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कनकलताकी कथा |
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उसका अभिषेक किया, पूजा की और पंचाश्चर्य किये । यह सब वृत्तान्त नगरके लोगोंने तथा राजाने देखकर कहा- जिनधर्म ही सब आपत्तियों को दूर कर सकता है, दूसरा धर्म नहीं । जैसा कि कहा है - इस लोक और परलोकमें धर्म ही जीवोंका हित करनेवाला है, अन्धकारके नष्ट करनेको सूर्य है, सब आपत्तिओं को दूर करनेमें समर्थ है, परमनिधि है, अनाथ असहायों का बन्धु है, विपत्तिमें सच्चा मित्र है और संसाररूपी विशाल मरुभूमिमें कल्पवृक्ष समान है । धर्मसे बढ़कर संसार में और कोई वस्तु नहीं है । ऐसा विचार कर नरपाल नृपतिने अपने पुत्रको राज्यपद और मंत्रीने अपने पुत्रको मंत्रीपद देकर दोनोंने सहस्रकीर्त्ति मुनिके पास जिन दीक्षा ग्रहण करली । इनके साथ साथ राजसेठ समुद्रदत्त, उमय तथा और बहुत से लोगोंने भी दीक्षा ग्रहण की। कुछ लोगोंने श्रावकों के व्रत लिये और कुछने अपने परिणामोंको ही सरळ बनाया । इनके बाद ही मदनवेगा रानी, मन्त्रिपत्नी सोमा, समुद्रदत्तकी स्त्री सागरदत्ता तथा और बहुतसी स्त्रियोंने भी अनन्तमती आर्यिका के पास जिन-दीक्षा ग्रहण की और कितनी ही स्त्रियोंने श्रावकों के व्रत लिये ।
इस कथाको कहकर कनकलताने अर्हदास से कहा - प्राणनाथ, यह सब वृत्तान्त मैंने प्रत्यक्ष देखा है, इसीसे मुझे ढ़ सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई । अईद्दासने कहा – प्रिये, जो तुमने देखा है, उसका मैं श्रद्धान करता हूँ, उसे चाहता हूँ
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