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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यक्त्व-कौमुदी कड़ा और छोड़ दिया । उमयकी यह दशा देखकर सिपाहीने सोचा-एक पेटसे पैदा हुए सब एकसे नहीं होते । जिनदत्ता और उमय दोनों एक पेटके बहिन-भाई हैं । पर बेचारी जिनदत्ता कितनी सीधी-साधी और यह ऐसा पापी है। उमयने वार वार मना करने पर भी जब न माना तो सिपाही एक दिन लाचार हो उसे राजाके पास लेगया। राजासे उसने कहा-महाराज यह नगरसेठ समुद्रदत्तका लड़का है। उमय इसका नाम है। यह बड़ा चोर है । इसे हजारों वार मना करने पर भी इसने चोरी करना न छोड़ा। अब जैसा आप उचित समझें करें। राजाने कहा-जब इसमें समुद्रदत्तका एक भी गुण नहीं तब यह उसका लड़का कैसे कहा जा सकता है । राजाने समुद्रदत्तको बुलाकर कहा-सेठ महाशय, इस दुष्टको घरसे निकाल बाहर कीजिए । अन्यथा इसके साथ आप भी नाहक खराब होंगे । आपकी मान-मर्यादामें बट्टा लगेगा । दुर्जनके संसगेसे सज्जनोंको भी दोष लग जाया करता है । सीताका हरण रावणने किया था, परन्तु बाँधा गया था समुद्र । इसलिए कि वह लंकाके पास ही था। समुद्रदत्तने विचारा-साधुओंको दुर्जनोंकी संगति कष्टके लिए ही होती है । पानीकी घड़ीका बर्तन तो पानीमें डूबकर समय बतलाता है, पर ठोका जाता है पासमें लगा हुआ घंटा । इसके बाद उसने अपनी स्त्रीसे कहा-अब उमयको घरसे निकाल देना ही अच्छा है। क्योंकि चोरसे For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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