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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नागश्रीकी कथा । इसी बीचमें लक्ष्मीमतीने भगदत्तसे कहा-नाथ, आप व्यर्थ हठ क्यों करते हैं ? जहाँ दोनोंकी समानता होती है, वहीं विवाह, मित्रता आदि बातें होती हैं । जब जितारि और आपकी समानता नहीं है तब आपका उसके साथ सम्बन्ध भी नहीं हो सकता। इसलिए आपको युद्ध न करना चाहिए। यों ही बैठे-बिठाये कोई काम कर बैठनेसे सिवा मरणके और कुछ नहीं होता । भगदत्तने तब लक्ष्मीमतीसे कहा-तू मूर्ख है, इन बातोंको नहीं समझ सकती। यदि कोई साधारण मनुष्य होता तो मैं उसके कहने पर ध्यान भी न देता। पर उसे तो अपने राजा होनेका बड़ा घमंड है और उसी घमंड मैं आकर उसने मुझसे कहा है कि युद्धमें मैं तुम्हें तुम्हारा सब मनोवांछित दूंगा । अब यदि मैं उससे युद्ध न करूँ तो और साधारण राजाओंकी नजरसे भी गिर जाऊँगा । वे मुझे न मानेंगे और ऐसा होना मुझे मंजूर नहीं । क्योंकि संसारमें एक क्षणमात्र भी क्यों न जीना हो, पर वह जीना उन्हीं पुरुषोंका सफल है जो विज्ञान, शूरवीरता, ऐश्वर्य और उत्तम उत्तम गुणोंसे युक्त हैं और बड़े बड़े प्रतिष्ठित लोग जिनकी प्रशंसा करते हैं । यों तो जूठा खाकर कौआ भी जीता रहता है। पर ऐसे जीनसे कोई लाभ नहीं। इस तरह लक्ष्मीमतीको समझा-बुझाकर बड़े दल-बलके साथ भगदत्तने जितारि पर For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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