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मन्त्र-ब्राह्मणम् ।
स्त्यखानाधुपं यहेवानां वायुषं तत्तेस्तु बायुषम्॥८॥ अम्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रवीमि तच्छक तेना समिदमहमन्टतात् सत्य नपैमि स्वाहा॥६॥ __ हे 'व्रतपते !' उपनयनादि व्रतस्याधिपते ! 'अग्न!' 'अहम्' 'इदं' 'व्रतं' ब्रह्मचर्य चरिथामि' आचरिथामि, 'तत्' तमात 'ते' तुभ्यं 'प्रब्रवीमि' अावेदयामि त्वत्प्रसादेन 'तत्' 'शकेयं चरितुमिति यावत् किञ्च 'तेन' तत्फलेन 'ऋध्यासं' सरहियुक्तो भवेयम् - इत्यञ्च 'अमृतात्' अलौकावस्थातो निर्गता 'सतं" ब्रह्म तत्प्राप्तये धृत मैतद् ब्रतम् 'उपैमि' उपगच्छामिः प्राप्नोमि ॥ ८ ॥ | জমদগ্নির যে অবস্থায়*কশ্যপের যে অবস্থায় অগস্ত্যের যে অবস্থায়—দেবগণের যে অবস্থায়, তাহা তুমি লাভ কর। ৮
উপনয়ন প্রভৃতি ব্রতের অধিনায়ক হে অগ্নে! আমি এই ব্রহ্মচর্য ব্রত আচরণ করিব, সেই জন্য প্রার্থনা করি— তৎপ্রসাদে যেন উহা নিৰ্বাহ করিতে পারি! এবং ঐ ব্রত ফলে যেন ব্ৰহ্মবচঁস লাভ করিতে পারি !–এই সমস্ত অভিপ্রায়ে বিদ্যমান অবস্থা হইতে নির্গত হইয়া সত্যস্বরূপ প্রাপ্তির জন্য এই ব্রত অবলম্বন করিতেছি। ৯
८-प्रजापति: देवता । यजुः । आशी:करणे विनियोगः । र. --अग्नि देवता । निगदः । उपनयन- होम विनियोगः ।
* ताला, तर, हन।
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