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१५० ५ ख० ८ १२ /
३८.
चन्द्रमसि श्रितं । वेदाम्टतस्याह नाम माह पौत्रमधषिम् ॥ ११ ॥ इन्द्राग्नी शर्म यच्छतं प्रजापती । यथा यन्न- प्रमीयेत पुत्रो जनित्रा अधि ॥ १२ ॥ यददश्च
'यत' 'अमृतं' 'पृथिव्याः,' 'न' 'दिवि' दालो के 'चन्द्रमसि ' त्वयि ‘श्रितम्' आश्रितम्, 'तत्' 'अमृतस्य' गुणम् 'अह' 'वेद' जानामि ; अतः सम्भावये --' पौतम् ' पुत्र सम्बन्धि 'अम्' पापफलं शोकादिकं ‘मा रिषम्' नाप्नुयाम् || ११ ||
'मे' मम 'प्रजायै' पुत्राय 'इन्द्राग्नी' देवते 'शर्म ' कल्याणं 'यच्छतम्' ददताम्, 'प्रजापती' प्रजापतिः प्रजानां पालको देवः तथा कुरुतात् 'यथा' असौ 'पुत्र: ' ' जनित्रयाः ' जनन्या, 'अधि' उत्सङ्गे (जौवितायां मातरीति भावः) 'न प्रमीयेत' न मृयात ॥ १२ ॥
যে অমৃত পৃথিবীতে নাই=দ্যুলোকে চন্দ্রমাকে আশ্রয় করিয়া রহিয়াছে, সেই অমৃতের গুণ আমি অবগত আছি ; অতএব ভরসাকরি আমি পুত্র সম্বন্ধি পাপফল ) শোকাদি প্রাপ্ত হইব না!। ১১
ইন্দ্রাগ্নী দেবতারা আমার এই পুত্রকে কল্যাণ প্রদান করুন, প্রজাগণের পালক দেবতাও সেইরূপ করুন—যাহাতে জননীর ক্রোড়ে (অর্থাৎ জননী জীবিতা থাকিতে) এই পুত্রের মৃত্যু না হয় ॥১২
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