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मन्त्र ब्राहम् ।
मत वा अघम्॥ शीर्ण: खजमिवोन्मच्च शिनाः प्रति मुअ चामि पाश साहा ॥शापरैतु मृत्युर मृतं म आगाढवखतो नो अभयं कृणोतु ॥ परंत्यो
सती 'पुरः' अन्सष्यु रे 'मा' 'आवधिष्ठाः' न कदाचिदपि परिजनान् घातये ; किञ्च ‘जीवपत्नी' जीवत्पतिका सतो 'सुमनस्यमानां' दृष्टचित्ता 'प्रजा' 'पश्यन्ती' बौक्षमाणा 'पतिलोके' पतिराहे 'विराज' शोभस्ख ॥१२॥
हे कन्ध ! 'अप्रजस्यम्' बन्धात्व' 'पौत्रमर्त्यम्' पुत्रसम्बन्धि-मरणं पाशम् मृत्योः पाशरूपम् ‘पापमानम्' 'उत वा' अन्यदपि 'अघम्' अरिष्ठ त्वयि यद् स्थितं तत् सर्व 'शीर्णः' मस्तकात् ‘स्रजम् इव' मालामिव त्वत्त: 'उन्मुच्य' अवतार्य विषदभ्यः इष्टुभ्य: 'प्रति मुञ्चामि' प्रतिक्षिपामि ॥१३॥
পুর বাসী-দিগকে তােমায় পীড়িত করিতে না হয় ! সধবা থাকিয়া হৃষ্টচিত্তে পুত্রাদি লইয়া আমােদ প্রমোেদ করত পতিগৃহে সুখে বাস কর।১২
| হে কন্যে ! বন্ধ্যাত্ব, পুত্র-শােক প্রভৃতি মৃত্যুর পাশ স্বরূপ যে সকল পাপ ও অরিষ্ট তােমাতে আছে, তৎসমস্তই তােমার মস্তক মইতে মালা-উন্মােচনের ন্যায় উন্মুক্ত করিয়া শত্রুবর্গের প্রতি নিঃক্ষিপ্ত করিতেছি ॥১৩।
१३- उपरिष्टाहहतीच्छन्दः । अग्नादयो देवताः। आजाहोमे विनियोगः ।
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