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२प्र. 8 ख• १-01
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॥ अथ चतुर्थः खण्डः ॥ इदं भने भजामह इदं भद्रप सुमङ्गलं ॥ परा सपत्ना नवाघखान्नेत्रषां विन्दते वखन्नाषां विन्दते धनं ॥१॥ इम स्तोम. महते जातवेदसे रथमिव संमहेमा
हे अग्ने ! 'भूम:' 'इदं' खण्डं स्थण्डिलात्मकं भजामहे, 'इदं “भद्र'' कल्याणकरं 'सुमङ्गलं' मङ्गलकरं पुनरुतमा अतिकल्याण करं अम्माक भवविति शेषः। किञ्च ‘सपत्नान्' अस्मच्छत न 'परावाधव' पुछु, पौड़यख । किञ्चान्यदपि अन्येषां' परेषां शत्र णां वसु' धमम् ‘विन्दते' लभते इत्थं याजक इति अतमित्यभिप्रायः ॥ 'अन्य षां विन्दते धनम्'-इत्यंशस्त 'अन्य षां लिन्दते वसु' इति स्थानीयं रात्रौ पाठामिति युक्त मल ॥ १ ॥ __ 'दम' 'स्तोमं स्तवं, 'सम्म हेमा' पूजोपकरणयुक्त कुर्थाम, -किमर्थं ? 'जात. वेदसे' एतनामकाग्नये, 'अर्हते' स्तुत्याय, 'मनीषया' प्रजया, सारथि यथा 'रथमिव' रथं सम्म हे मा तत्
হে অগ্নে ! আমরা ভূমির এই স্থণ্ডিল ভাগ উপাসনাকরিতেছি তুমি আমাদের কল্যাণকর, মঙ্গলকর অতিশয় কল্যা ণকর হইতেছে, অতএব আমাদের সপত্ন-শত্ৰুদিগকে ভালরূপে পীড়া দাও এবং অন্যান্য শত্ৰুদিগের ধন হরণ কর। ১। | নিজ প্রজ্ঞাবলে সারথি যেমন রথকে চালনােপযুক্ত করে তােপ আমরা এই স্তুতিকে জাবেদ নামক অগ্নির নিমিত্ত পূজোপকরণে উপযুক্ত করি, যেহেতু, এই অগ্নির
१ - अनिर्देवता । अमुष्ट प् छन्दः ।भूमि जपे विनियोगः ।
काम्येचत ऊर्डम् गों ४, ५ ।। भूमौ न्यञ्चौ पाणी प्रतिष्ठाप्येद' भमर्भ जामह इति वखन्तं रावो धनमिति गौं ४,५ ।
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