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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सातवाँ उच्छ्वास ७६ सेठ जिनदत्त का सम्मान करते हुए कहा-'आपके बिना सारा स्थान शून्य सा लग रहा था।' सारे वातावरण में वर्णनातीत आनन्द व्याप्त था । अन्त में सभी व्यक्तियों के साथ जिनदत्त को नगर-प्रवेश यात्रा बहुत धूमधाम से निकली। एक खुले हुए यान में तीनों बैठ गए। सबसे आगे पुत्र बैठा था, उसके पीछे माता-पिता बैठे थे। अनेक प्रकार के बाजे बज रहे थे । जय-जयकार के नारों से आकाश गूंज उठा। हजारों नागरिक साथ थे। जिनदत्त ने नगर में प्रवेश किया। वे सोलह वर्ष बाद सकुशल अपने घर लौट आए। सेठ के घर में अभूतपूर्व मेला लग गया। बहत आडम्बर से प्रीतिभोज संपन्न हुआ । पूर्व परिचित नौकर, दास, दासियां, गुमास्ते आदि स्वयं आकर मिले । सारा कार्य सुव्यवस्थित हो गया। जैसे निर्धन व्यक्ति धन को, अंधा व्यक्ति आंख को और भूखा व्यक्ति भोजन को प्राप्त कर सुख का अनुभव करता है वैसे ही पुत्र को पाकर दोनों नितान्त सुखी हो गए। वे क्षणभर के लिए भी पुत्र को अलग करना नहीं चाहते थे। शयन, भोजन और पान आदि के विषय में माता भानुमती अपने युवा पुत्र को भी छोटे शिशु की भांति मानती और उसी प्रकार उसके साथ व्यवहार करती थी। - इधर गोशीर्ष चन्दन को बेचकर राउल अतुल धन और मोती आदि लेकर आया। सेठ के समक्ष रत्नपाल की ओर देखते हुए राउल ने कहा'श्रेष्ठि नन्दन ! अपने पूज्य पिता द्वारा अजित यह अतुल धन लीजिए'ऐसे कहते हुए राउल ने उसके आगे सारा धन रख दिया। उसको देखकर आश्चर्य से हँसते हुए जिनदत्त ने कहा-'राउल ! यह धन राशि कहां से लाए ? कठिहारे का काम करने वाला मैं इतना धन कैसे संचित कर सकता था? व्यर्थ ही मेरी गौरवगाथा मत गाओ, मैं परदेश से कुछ भी नई वस्तु नहीं लाया हूँ।' हंसते हुए उस राउल ने जोर से गर्जते हुए कहा-'यह सारा आपका है, दूसरे का कुछ भी नहीं है। मैं योगी हैं। मैं व्यर्थ ही प्रलाप नहीं करता। श्रेष्ठिप्रवर ! आपने बारह वर्ष तक जो सूखा काठ बेचा था, वह सारा गोशीर्ष चन्दन था । वह धूर्त सब जानता था, किन्तु उसने रहस्य प्रकट नहीं किया। मैंने वह जान लिया । पश्चात् किसी छल के द्वारा मैंने विक्रीत मूल्य के साथ सारा चन्दन वापिस ले लिया। इस प्रकार राउल ने सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से कह सुनाया। राउल विपुल बुद्धि-कौशल का धनी है'—यह देख सब विस्मित हो गए । ओह ! धन्य है राउल; यह कितना दक्ष है ! यह एक कार्य के साथ-साथ अनेक कार्य करता है । कैसे इसने ठगे हुए धन को पुनः ले लिया ? For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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