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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ रयणवाल कहाँ पुनः पुनः पूछता और उत्कंठा से तर्क-वितर्क करता था। परन्तु किसी ने भी यह नहीं बताया कि ऐसा कोई व्यक्ति उन्हें दीखा या मिला है। अन्त में हताश होकर वह घर आता और संकल्प-विकल्पों में रात बिताता था। उसे क्षण भर के लिए भी सुख नहीं मिलता था। ___ एक बार रत्नपाल अपने स्वप्न के संकेत से प्रातःकाल पुनः उसके आने के मार्ग को देखने गया। वह गिद्ध-दृष्टि से देख रहा था। उसने राउल जैसे एक किसी व्यक्ति को आते हुए देखा । ओह ! उसके हृदय में अभूतपूर्व सुखानुभूति हुई । बार-बार सूक्ष्मता से देखने पर उसने जान लिया कि यह राउल है, वही है, वही है, ऐसा कहता हुआ वह उस दिशा में भागा। अनुभूत विरह-वेदना को भूल कर स्वागतम्-स्वागतम्' ऐसा कहता हुआ वह उसके सम्मुख गया। दोनों परस्पर गले मिले । एक दूसरे के आसुओं से दोनों ने स्नान किया और परस्पर कुशल समाचारों से अवगत हुए । रत्नपाल ने पूछा-'मैं जिनकी प्रतीक्षा कर रहा था, वे मेरे माता-पिता कहां हैं ?' राउल ने कहा- 'वे नगर के समीप वाले उद्यान में बैठे हैं और तुझे देखने के लिए आतुर हो रहे हैं। अब तुझे शीघ्र ही वहां सपरिकर जाना चाहिए।' यह सुनकर रत्नपाल अत्यन्त उत्सुक हुआ । पश्चात् वे दोनों शीघ्र ही नगर में आ गए। नगर में जिनदत्त के आगमन का समाचार फैल गया। सारे कौटुम्बिक, मित्र, नगर के प्रमुख व्यक्ति, समानवय वाले व्यक्ति जिनदत्त की अगवानी करने के लिए रत्नपाल के साथ जाने को उत्सुक हो गए। राउल ने पहले जाकर, जिनदत्त और भानुमती को अच्छे सुन्दर कपड़े पहनाए और विभिन्न अलंकारों से अलंकृत कर उन्हें ऊंचे आसन पर बिठा दिया। सारी व्यवस्था अच्छी तरह हो गई। ___ इधर रत्नपाल माता-पिता को देखने बहुत आडम्बर के साथ निकला। जय-जयकार के नारे के साथ वहां पहुंचा। माता-पिता को देखते ही उसने हाथ जोड़ लिए। उसका रोम-रोम उल्लसित हो उठा। आंखें डब-डबा आई । वह उनके चरणों में गिर पड़ा। माता-पिता को बहुत आनन्द हआ। उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को बांह पकड़ कर ऊपर उठाया, छाती से लगाया, और उसके मस्तक को सूघा । पश्चात् उन्होंने स्नेह से कुशल पूछा । भानुमती की स्थिति अवक्तव्य थी। उसकी आंखों में प्रेम के आंसू थे और वह अनिमेष दृष्टि से अपने पुत्र को देख रही थी। उसने मन ही मन सोचा-आज मैं पुत्रवती, सौभाग्यवती, अत्यन्त पुण्यशालिनी और धन्य हुई हूँ । सारे कौटुम्बिक लोग मिले और सुख-दुःख की बातें करने लगे। नगर के संभ्रात व्यक्तियों ने For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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