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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छठा उच्छ्वास उसने सोचा-'हाय । वे मेरे कारण कहां कष्ट भोग रहे हैं ? मेरी इस विपुल सम्पत्ति से क्या लाभ ? जब तक कि मैं अपने माता पिता के दर्शन नहीं कर लू ।' ___बन्धुओं ने कहा--'सुपुत्र ! तू अपने आपको संभाल ! शीघ्र ही वे तुझे मिल जायेंगे । हम उनकी खोज करवायेंगे । भाग्य की अनुकूलता से उनका वृत्तान्त हमें प्राप्त होगा। अब तू यहा के अस्त-व्यस्त कार्य को ठीक कर जिससे तेरे पिता का नाम उज्ज्वल हो सके ।' रत्नपाल ने उनका कथन स्वीकार किया। सभी बन्धूजनों और मित्रों के साथ प्रीतिभोजन संपन्न हुआ। जिनदत्त के पास रहने वाले अनेक भत्य कर्मकर, गुमास्ते और मित्रजन मिल जुल कर आए और अपना-अपना परिचय देते हुए बोले-'श्रेष्ठिकुमार ! महावृक्ष के नष्ट हो जाने पर घोंसलों में संस्थित पक्षियों के बच्चों की जो दशा होती है, वही दशा, जिनदत्त श्रेष्ठि का आश्रय न रहने से हमारी हो रही है। अब हम आशा करते हैं कि तुम अपने पिता की भांति हमें आश्रय देने वाले होगे ।' रत्नपाल ने सबकी प्रार्थनाएं सुनी, उनकी मांग को जानकर उन्हें यथायोग्य कार्य देकर उनको संतुष्ट और हर्षित किया। अब मेरा प्राथमिक क्या कर्तव्य है ? इस प्रकार कतिपय प्रौढजनों से रत्नपाल ने पूछा, और उनके कथनानुसार कार्य करते हुए उनका सम्मान किया। इसके बाद नगर के प्रमुख व्यक्तियों के साथ रत्नपाल राजा के पास गया और उपहार प्रस्तुत करते हुए कहा-'नरदेव ! जिनदत्त श्रेष्ठि से जो कोई लोग ऋण मांगते हैं वे मुझसे व्याज सहित अपना-अपना धन शीघ्र ले जाए और जो लोग सेठ के कर्जदार हैं वे सब शीघ्र ही मुझे धन लाकर समर्पित करें। राजा ने तत्काल ही नगर में यह घोषणा कर दी कि--'जिनदत्त सेट से सम्बन्धित जो धन लोग मांगते हैं, वे अपना धन ले जाएँ और जिन्हें अपनी रकम वापस लौटानी है वे रत्नपाल को सारी रकम दे जाएं।' तत्काल उचित व्यवस्था हो गई । कर्ज मांगने वालों को सारा धन मिल गया और जो कर्जदार थे उन्होंने अपनी-अपनी रकम रत्नपाल को लौटा दी। जो क्षेत्र, वस्तु, दुकान, मकान आदि दूसरों के हाथ चले गए थे, वे सब पूनः रत्नपाल ने अपने आधीन कर लिए । नगर में इसकी कीति फैल गई।' अहो ! रत्नपाल बालक होता हुआ भी कितना बुद्धिमान् है जिसने सारे अव्यवस्थित कार्य को सुव्यवस्थित कर दिया। राउल ने भी वहां की सारी For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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