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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ रयणवाल कहा प्रणाम किया और बोला-'आपके आशीर्वाद से सब कुछ ठीक हुआ । समुद्र की यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न हुई' जहाज से सभी विक्रणीय और इतर वस्तुओं को उतारा गया। रत्नपाल के नगरागमन के उपलक्ष में शोभा यात्रा बड़ी धूमधाम से निकली। सभी नागरिकों की प्रेम भरी आँखों से सम्भावित एवं सम्मानित रत्नपाल राउल के साथ पहले मन्मन सेठ के घर आया। भोजन आदि से निवृत्त हो उसने नगर के गण्यमान्य व्यक्तियों के सामने लेख के अनुसार अपने पिता का ऋण, ब्याज सहित चुकाया और किरियाने का यथोचित मूल्य दिया 'अब सेठ जी (मन्मन) का मेरे में कुछ लेना देना नहीं है।' यह कहकर उसने सबके सामने लेखपत्र फाड़ डाला। मन्मन के हाथ से ऋण भुगतान की रसीद लिखाई और उसने कहा - 'मन्मन द्वारा दिए गए पारितोषिक का जो विपुल फल मुझे प्राप्त हुआ वह सब मेरा है, सेठ का कुछ भी नहीं है । यदि मैं अब सेठ के घर में रहता हूँ तो भी कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि यह मेरा घर है । किन्तु अपने घर के बिना मेरा मन संतप्त हो रहा है । इसलिए मैं अभी अपने घर जाना चाहता हूँ।' इस प्रकार कह कर रत्नपाल उठा और मन्मन को प्रणाम कर, हाथ जोड़कर बोला-'श्रेष्ठिप्रवर ! मैं अपने घर जाने के लिए आपकी आज्ञा चाहता हूँ। सोलह वर्ष तक मैं यहां बड़ा हुआ पुत्र की भांति आपने मेरा लालन-पालन किया और मुझे शिक्षित कर प्रवास में भेजा । मैं आपके इस परम उपकार को याद रखूगा । कोई कार्य आने पर मैं शीघ्र ही आपके पास उपस्थित होऊँगा । मेरा मन अपने पिता के घर जाने के लिए बहुत उत्कंठित हो रहा है । आप कृपा कर मुझे आज्ञा दें।' 'पर वस्तु की लालसा करना व्यर्थ है'-ऐसा जानकर, अन्तर से खिन्न केवल व्यवहार कुशलता का निर्वाह करते हुए मन्मन ने रत्नपाल को घर जाने के लिए आज्ञा देते हुए कहा-'आनन्द से अपने घर जाओ और तुम्हारा वैभव दिन प्रतिदिन बढ़ता जाए।' ___ सोलह वर्ष के बाद अपने बन्धुजनों से परिवेष्टित और मंगल पाठकों के मंगल शब्दों द्वारा वर्धापित होता हुआ रत्नपाल अपनी हवेली के पास आया । रत्नपाल के आने की सूचना पाकर वह बूढ़ी पडौसिन तत्काल वहां आई और रत्नपाल को घर की चाबियाँ दे दी। रत्नपाल ने दोनों कपाट खोले । पूज्य पिताजी कहां बैठते थे, कहां सोते थे-ये सब बातें परिजनों ने बताई । तत्काल उनकी स्मृति सद्यस्क हो गई । रत्नपाल बालक की भांति रोने लगा। For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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