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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रयणवाल कहा योगी ने कहा-'यदि निपुणता से कार्य किया जाय तो निरुपाय क्या हो सकता है ? राजा ने उत्कंठित होकर कहा---'यदि आप कृपा कर कोई मार्ग बताएंगे तो हम अनुगृहीत होंगे।' योगी ने अपनी शक्ति का निदर्शन करते हुए कहा-'यदि रत्नवती को स्त्री रूप से पुरुष रूप में परिवर्तित कर अपने पति के साथ उसी रूप में अपने देश में जाया जाए तो हमारा कार्य नहीं सध जाएगा?' __राजा ने जटाधारी योगी की मुखाकृति को देखते हुए कहा-'यदि ऐसा हो सकता है तो दूसरा क्या चाहिए? आप परोपकार करने में निपुण योगी हैं । आप ऐसा यौगिकचमत्कार दिखाए। हम निश्चित ही कृतार्थ होंगे।' तपस्वी योगी ने सगर्व कहा- 'यदि मैं इतना छोटा-सा कार्य करने में भी असमर्थ हूँ तो क्या मैंने इतने वर्ष जंगल में व्यर्थ ही बिताए और क्या मैंने व्यर्थ ही इतने वर्षों तक मौनव्रत का आचरण किया है ?' तत्काल योगी ने राजकुमारी को अपने पास बुलवाया। उसने झोली से दो जड़ियाँ निकाली। एक के विधि युक्त प्रयोग से स्त्री पुरुष बन जाती है और दूसरे के प्रयोग से पुनः अपने स्वरूप में आ जाती है। तत्काल पहली जड़ी का प्रयोग किया । रत्नवती तत्क्षण राउल योगी के रूप में परिवति हो गई। 'मणि मंत्र और औषधियों का प्रभाव अचिन्त्य होता है'- इस उक्ति की यथार्थता का साक्षात्कार सबने किया । राउल ने रेशमी गेरुआ उत्तरीय पहना और घुटनों तक लटकने वाली शिथिल सुन्दर गेरु रंग की कथा को अपने कंधों पर धारण किया। शिर पर राउल योगी की परम्परा के अनुकूल आडम्बर रहित टोपी पहनी। हाथों में अनेक मधुर स्वरों के आलाप से मधुर नई वीणा को धारण किया । इसी प्रकार दूसरी सारी तद्योग्य सामग्री से युक्त वह राजयोगी बहुत सुन्दर और सबके लिए आश्चर्य से देखने योग्य हो गया। पश्चात् समयज्ञ राजा ने जामाता को पुनः प्रासाद में निमंत्रित किया और कहा- 'जामात ! बहुत आग्रह करने पर भी तुम न यहां ठहरना चाहते हो और न अपनी भार्या को साथ ले जाना चाहते हो । जामाता पर हमारा क्या जोर चल सकता है ? जो प्रवासी स्नेह को शिथिल कर द्वीपान्तर में चले जाते हैं उनका पुनः लौट आने का क्या विश्वास है ? पुनः लौटने का स्मरण For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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