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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रयणवाल कहाँ कृपाकर शीघ्र ही हमें प्रदान करें। निःसन्देह ही रोग से मुक्त होकर राजा आपके शुभ भविष्य का हेतु बनेगा!" मंत्री की निश्छल वाणी सुनकर रत्नपाल का अन्तःकरण विश्वस्त हुआ। उसने सोचा-"आश्चर्य है कि इतनी तुच्छ वस्तु भी भाग्यवश अतुल लाभदायक सिद्ध हो रही है । अथवा विमल भाग्य कैसे, कब, कहां प्रतिफलित होता है-यह अगम्य और रहस्यमय है । मेरे पास व्यर्थ ही पड़े हुए वे फूल मैं इन्हें दे दू"-ऐसा सोचकर कुमार ने उदारता दिखाते हुए मधुर वचनों में कहा-"मंत्रीप्रवर ! आपने जिस वस्तु की बहुत खोज की है, वह भनायास ही मेरे साथ है। इससे अधिक अच्छा और क्या हो सकता है कि मेरी वस्तु नृपति के काम आए । आपने कैसे कहा कि इच्छानुसार मूल्य ले लें? हमारे जैसों के लिए तो आपके कृपा-कटाक्ष में ही मूल्य निहित है । आप क्षण भर ठहरें, मुझे भी आपके साथ फूलों के उपहार के मिष से राजा के दर्शनों का लाभ मिल सकेगा। ___ मंत्री ने कहा-बहुत अच्छा, आप शीघ्र ही तैयार हो जाए । राजा बहुत आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं । 'अभी भाया' कहकर रत्नपाल वहाँ से चला गया । तत्काल उसने राजसभा-योग्य वेश धारण किया और अनेक अलंकार पहनें । उसने राजा को भेंट करने के लिए अनेक विशिष्ट वस्तुएं अपने साथ लीं और पुष्पकरण्डक को सज्जित किया । वह अपने अनेक व्यक्तियों को साथ ले अमात्य के साथ राजा को देखने के लिए चल पड़ा। राजा को भी यह वृत्तान्त प्राप्त हुआ कि एक सामुद्रिक बाल व्यापारी उन फलों को लेकर मुझे देखने आ रहा है । राजा उससे मिलने के लिए आतुर हो उठा और वह उसके आगमन का मार्ग देखने लगा। इतने में ही उसने देखा कि जिनदत्त का पुत्र रत्नपाल प्रसन्नता से मन्त्री के साथ आ रहा है । उसने राजा को सविनय प्रणाम किया। औपचारिक वार्तालाप हुआ। कुमार ने दूसरी महामूल्यवान वस्तुओं के साथ-साथ पुष्प भेंट किए। राजा प्रसन्न हआ। वैद्य ने औषधि का प्रयोग किया । उसकी अस्खलित और सुखद प्रतिक्रिया हुई । राजा को अभूत-पूर्व सुख का अनुभव हुआ । 'इसने मुझे जीवन दान दिया है'-ऐसा सोचकर राजा रत्नपाल पर प्रसन्न हुआ। उसने रत्नपाल के लिए उचित व्यवस्था की और रहने के लिए विशाल भवन दिया। उसकी सारी वस्तुओं को ठीक स्थान पर रखवा दिया । और उसे राजसभा में स्थान दे दिया। राजा उसे कृपा दृष्टि से देखने लगा। धीरेधीरे कुमार वहां की स्थिति से परिचित हो गया। उसने वहां व्यापार प्रारंभ For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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