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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीसरा उच्छ्वास रोग असाध्य हो गया है । इसकी आशा अब प्रत्यक्ष रूप से निराशा में बदल गई है। 'पुत्र ! मैं शीघ्र ही सारा प्रबन्ध करूंगा ! अभी तुझे भोजन करना चाहिए'-ऐसा कहते हुए मन्मन ने पुत्र को भोजन करने के लिए उठाया ! उन दोनों ने ज्यों त्यों सरस और ताजा भोजन भी बिना स्वाद खाया। बाद में मन्मन ने अपने वाणिज्य-कुशल पुरुषों को बुलाकर उन्हें क्या करना हैसारा कह सुनाया ! जहाज तैयार किया और उसे तत्र सुलभ विक्रयणीय पदार्थों से भरा गया ! शुभ तिथि, करण और योग से संयुक्त शुभ मुहूर्त में प्रस्थान करने का निश्चय किया ! निश्चित समय आने पर सबके सामने जनक-स्थानीय मन्मन को विनय सहित प्रणाम करते हुए रत्नपाल ने कहा'मेरे लिए किया हुआ पूज्य पिताजी का ऋण चुकाने के लिए आज मैं देशान्तर जा रहा हूँ ! आज तक मैं यहां बहुत आनन्द से रहा और यहां मेरा लालन-पालन अपने पुत्र की भांति बहुत ही स्नेह से हुआ और मुझे सर्वाङ्गीण सुख मिला ! इन महानुभावों का आज भी वैसा ही प्रेम है तो भी मुझे अपना कर्तव्य करना चाहिए। मैं अब प्रवास में जा रहा है। जहाज पर जितना भी माल बेचने के लिए रखा गया है, वह सारा सेठ जी का है, मेरा कुछ भी नहीं है । देशान्तर में जाकर माल बेचने पर जो भी लाभ होगा, उससे पूज्य पिताजी द्वारा लिए गए ऋण को ब्याज सहित दूंगा और साथ-साथ जहाज में रखे गए सामान का मूल्य भी अर्पित करूगा ! प्रस्थान काल में जो कुछ भी मुझे सेठ से पारितोषिक रूप में प्राप्त होगा, उसका लाभ मैं स्वयं लूगा, सेठ को वह नहीं लौटाऊँगा," यह सुनकर महान कंजूस मन्मन ने सोचा-इसे मैं क्या हूँ? अन्त में अति तुच्छता दिखाते हुए उस कंजस ने उस समय में प्रचलित एक छोटा सिक्का 'मुदी' रत्नपाल को भेंट स्वरूप दिया ! इस अति तुच्छ दान के कारण सभी दर्शकों के मन में सेठ के प्रति हीनता के भाव आए ! धिक्कार है, कंजूस के निर्दय हृदय और निर्लज्ज दान को ! चिरकाल तक पोषित अपने पुत्र के साथ भी उसका कैसा व्यवहार है ? तो भी समयज्ञ रत्नपाल ने उस भेंट को आनन्द से स्वीकार किया, उसे माथे पर चढ़ाया और सुरक्षित रख दिया । उसने कहा-"आपकी कृपा से यह लघु दीखने वाला दान भी मेरे बहुत लाभ का हेतु बनेगा ! क्या वट वृक्ष का छोटा बीज विस्तार को नहीं पाता ?" For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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