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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रयणवाल कहा परिश्रम करूंगा तो मुझे काष्ठ की प्राप्ति नहीं होगी ? जिसे मैं खोजता हूँ क्या वह मेरे आगे आकर उपस्थित नहीं होगा ? जो अपने व्रतों का भंग करते हैं उनका जीवन भी क्या जीवन है ? जो अपनी प्रतिज्ञा को अखंडित रखते हैं, उनके लिए दु:ख भी सुख है। इसलिए मुझे अपना व्रत नहीं छोड़ना चाहिये'-ऐसा कहकर सेठ निर्भय रूप से अकेला ही सूखे (अचित्त) काष्ठ की टोह में गहन वन में चला गया। उसने बहुत गवेषणा की किंतु एक भी सूखे काष्ठ की लकड़ी उसके हाथ नहीं लगी। तो भी सेठ उदासीन नहीं हुआ और खाली हाथ देर से घर लौट गया। ___ इधर भानुमती पतिदेव की प्रतीक्षा में झोंपड़ी के द्वार पर बैठी थी। पतिदेव अभी तक क्यों नहीं आए ? कौन-सी नई आपत्ति उत्पन्न हुई है ? इस प्रकार चिर-प्रतीक्षा करती हुई भानुमती ने रत्नपाल के पिता को आते हुए देखा तो वह आनन्द से हर्षित हो उठी। उत्सुकता से उसने पूछा- "आर्यपुत्र ! आज इतनी देर कैसे की ? आपका शरीर परिश्रान्त क्यों है ? शिर पर ढोए जाने वाले इंधन-भार को कहां डाल दिया ?" इस प्रकार प्रेमवती सह-धामणी ने अनेक प्रश्न पूछ डाले।। तत्त्वगंभीर-मुद्रा में सेठ ने कहा-'प्रिये ! अभी वर्षा काल है । सूखा काष्ठ दुर्लभ है। उसकी गवेषणा में मुझे इतना समय लगा, फिर भी मुझे यथेष्ट वस्तु नहीं मिली। रत्नमात ! मैं इसीलिए खाली हाथ लौटा हूँ। जो निश्चल रूप से व्रत को निभाता है, व्रत उसकी रक्षा करता है ।" सेठ की सहधर्मिणी मिष्ठा भानुमती ने निर्भयता से कहा-"आर्यपुत्र का चिंतन सही है ! ज्ञानी मनुष्य तुच्छ और क्षणिक पौद्गलिक सुखों के लिए महान् अध्यात्म सुखों को नहीं गंवाता । जो हमें प्राप्तव्य है वह कल या परसों तक मिल जाएगा, चिंता क्या है ?" धर्म प्राप्ति का यह प्रत्यक्ष निदर्शन है। ओह ! ऐसी आपत्ति में भी इनका मन चपल नहीं हुआ। दूसरे दिन भी जिनदत्त का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ । और वह यों ही लौट आया। तीसरे दिन सेठ गहन वन में घूम रहा था ! उसने वहां पर्वत की एक कंदरा में अपने नियम के दिव्य प्रभाव से अमर चंदन (बावना-चंदन) का समूह देखा । यथेष्ठ पदार्थ (काष्ठ) देखकर सेठ का मन प्रसन्न हो उठा । किंतु निपुण सेठ अपने भाग्य के दोष से उस हरि चंदन को नहीं पहचान पाया। धिग-धिग भाग्य की विपरीतता में चेतना भी स्खलित हो जाती है । सेठ ने तत्काल उसका एक गट्ठर बांधा और उसे शिर पर रखकर नगर की दिशा की ओर लौटा ! नगर के समीप धूतों का सरदार For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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