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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीसरा उच्छ्वास गया ! चारों ओर से उस समय मधुर लगने वाली मेंढकों की टर-टर सुनाई देने लगी। अपने जीवन-धन पानी को पाकर चिरमूच्छित वनराजी खिल उठी । कृषकों ने अपने बैलों के साथ कृषि के उपकरणों की पूजा की ! वे नक्षत्रों के बलाबल को जानकर, शुभ-शकुनों को पाकर, बीजों का वपन करने के लिए अपने-अपने खेतों की ओर चल पड़े । अहो ! चारों ओर सर्वाङ्गीण सौन्दर्य फैल गया। ___ इधर जिनदत्त प्रातःकालिक धर्मानुष्ठान से निवृत्त होकर अपने कन्धे पर कुठार ले काठ का भारा लाने के लिए कठियारों के साथ वन की ओर चल पड़ा ! किन्तु ऐसे वर्षाकाल में सूखा काष्ठ मिलना सुलभ नहीं था ! जिनदत्त जहां देखता था वहां सारी पृथ्वी हरियाली से अंकुरित दीख पड़ती थी ! सूखे और टेढ़े वृक्षों पर भी नए अंकुर शोभित हो रहे थे । आश्चर्य ! सूखे वृक्षों के लिए कोई अवकाश नहीं था। जिनदत्त बारहवती श्रावक था, अत: हरे वृक्षों के छेदन का उसे त्याग था ! उसने बहुत गवेषणा की, किन्तु उसे सूखा काष्ठ कहीं नहीं मिला। 'अब मुझे क्या करना चाहिए'- इस प्रकार वह चिन्तित हो गया। उसने सोचा 'यदि मैं व्रतों की रक्षा करता है तो आजीविका सुरक्षित नहीं रहती' । दूसरे कठियारों ने उससे स्पष्ट कहा.-.-"तू भोला है, क्या तु यह नहीं जानता कि अब वर्षाकाल है। नियम के परिपालन से पेट का परिपालन आवश्यक और उचित होता है । 'आपत्काल में कोई मर्यादा नहीं होती।' यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है। इसलिए अज्ञान अवस्था में स्वीकृत और सुखी अवस्था में पालनीय तू अपनी प्रतिज्ञा को छोड़। वे लोग धार्मिक नियमों का पालन करें, जो धनाढ्य और विपुल ऐश्वर्य संपन्न हैं और जिन्हें कोई धनार्जन की चिन्ता नहीं है। तेरे जैसे व्यक्तियों के लिए धर्म-स्थान में प्रविष्ट होने का अवकाश ही कहां है ? इसलिए तू काट, हरित काष्ठ समूह को काट ।" धर्म-निष्ठ सेठ जिनदत्त को उनका अनुचित कथन नहीं रुचा । विवेक-पूर्ण और गम्भीर उत्तर देते हुए उसने कहा—'तुमने धर्म का तत्व नहीं जाना है । धर्म के आचरण में धनवान और गरीब का कोई पक्षपात नहीं है । तत्त्वज्ञ गरीब व्यक्ति भी बहुत बड़ा धार्मिक हो सकता है, और अतत्त्वज्ञ, धनी भी धर्म करने में समर्थ नहीं हो पाता । कसौटी पर कसे गए सुवर्ण की तरह धर्म भी आपत्ति में ही परखा जाता है । चारों ओर घूमता हुआ कुत्ता भी अपना पेट भरता है । वहां आश्चर्य ही क्या है ? मनुष्य की यही महानता है कि वह प्राणों से भी ज्यादा माहात्म्य अनुत्तर श्रेष्ठ धर्म को देता है। जब मैं कठोर For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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