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रत्नाकर शतक
दुःख होता है तो सभी को दुःख होना चाहिये; क्योंकि सभी का अात्मा एक है। परन्तु सभी को एक साथ दुःख या सुख नहीं देखा जाता है, अतः एक विश्व व्यापी विराट् आत्मा की स्थिति बुद्धि नहीं स्वीकार करती है। इसलिये आत्मा एक अखण्ड, अमूतिक पदार्थ है यह समस्त शरीर में व्याप्त है, शरीर से बाहर इसकी स्थिति नहीं है और न यह शरीर के किसी एक भाग में केन्द्रित है।
प्रत्येक शरीर स्थित आत्मा शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से परमात्म स्वरूप है। उसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र वर्तमान हैं। कर्म बन्ध के कारण ये गुण आत्मा के आच्छादित हैं, इसलिये परमात्म-पद की प्राप्ति नहीं हो रही है । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के प्रात्मा में परमात्मा बनने की योग्यता वर्तमान है। इसलिये यहाँ एक परमात्मा नहीं हैं, अनेक परमात्मा हैं। प्रात्मा के वास्तविक गुणों की अभिव्यक्ति हो जाने पर यह आत्मा परमात्मा बन जाता है।
दर्शन, ज्ञान, चारित्र का धारी आत्मा जर निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर आत्मा में लीन हो जाता है, उस समय उसके कर्मों का बन्ध नहीं होता। यदि यह निर्विकल्पक समाधि अन्तर्मुहूर्त काल (२४ गिनट) तक ठहर जाय तो फिर इस जीव को परमात्मा
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