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विस्तृत विवेचन सहित
बननेमें देर न लगे। कविवर बनारसीदास ने निम्न पद्य में बड़ा ही सुन्दर आध्यात्मिक चित्रण किया है। कविने यह बतलाने का प्रयास किया है कि ज्ञान, दर्शन का अनुभव करनेवाला आत्मा परमात्मा किस प्रकार बन जाता है तथा उसकी दृष्टि किस प्रकार की हो जाती है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि की प्राप्ति हो जाने पर परपरिणति बिल्कुल हट जाती है, मनवाच्छित भोगोपभोग उसे विनाशीक, अहित कारक दिखलायी पड़ने लगते हैं। वह सब कुछ करता हुआ भी संसार से पृथक रहता है। कवि कहता है
ज्ञान उदै जिनके घट अन्तर, ज्योति जगी मति होय न मैली । बाहिज दृष्टि मिटी जिन्हके हिय, आतम ध्यान कलाविधि फैली ॥ जे जड़ चेतन भिन्न लखै सु बिवेक लिये परखै गुन थैली । ते जगमें परमारथ जानि गहै रुचि मानि अध्यातम सैली।
निर्माण प्राप्ति में साधक रत्नत्रय को जो कि आत्मा का गुण है, अपने में जाग्रत करना चाहिये । नानाप्रकार के संक्लेश सहने से, कषायों में लिप्त रहने से, अज्ञानता पूर्वक तपस्या करने से परमात्म पद को प्राप्ति नहीं हो सकती है। प्रत्येक मनुष्य दुःख से घबड़ाकर सुख की अभिलाषा करता है, यह सुख कहीं बाहर नहीं है अपने आत्मा में ही है; जब आत्मा अपने स्वरूप को पहचान लेता है, तो इसके सभी दुःख मिट जाते हैं। अपने स्वरूप को
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