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विस्तृत विवेचन सहित
विश्राम नहीं। आचार्य ने इस मिथ्या धारणा का खण्डन करने के लिये आत्मा को समस्त शरीर व्यापी बतलाया है। जैसे दूध में घी, तिल में तैल और पुष्प में सुगन्ध सर्वत्र रहती हैं, उसी प्रकार यह
आत्मा भी शरीर के प्रत्येक अवयव में वर्तमान है। यह वटकणिका के समान कभी नहीं हो सकता; क्योंकि किसी भी प्रिय वस्तु के मिल जाने पर सर्वाङ्गीण सुख के अनुभव का अभाव हो जायेगा। प्रसन्नता होने पर सर्वाङ्गीण सुख एक ही क्षण में अनुभव गम्य है, अतः आत्मा को शरीर व्यापी मानना चाहिये।
आत्मा के निवास के सम्बन्ध में दूसरा सिद्धान्त है कि आत्मा व्यापी और विराट है। यह कहता है कि प्रात्मा एक अखण्ड अमूर्तिक पदार्थ है, जो मनुष्य के समस्त शरीर में व्याप्त है तथा शरीर से बाहर भी समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। एक ही विराट ब्रह्म संसार के सभी प्राणियों में वर्तमान है ।
यदि उपर्युक्त सिद्धान्त पर विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि आत्मा शरीर से बाहर नहीं रहता है तथा सभी प्राणियों के शरीर में एक ही आत्मा नहीं है। यदि सभी के शरीर में एक ही
आत्मा होता तो जिस समय एक व्यक्ति को सुख होता है, उस समय सभी व्यक्तियों को सुख होना चाहिये, क्योंकि सभी के शरीर में अनुभव करनेवाला भात्मा एक ही है। यदि एक व्यक्ति को
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