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रत्नाकर शतक
__अर्थात----यह आत्मा चेतन है, अनन्त गुण और पर्यायों का धारी है। यह प्रमूर्तिक है, जिससे कोई इसे नहीं देख सकता है, यह अखंडित है, सभी प्राणियों में इसका अस्तित्व है। इस प्रकार आत्मा के स्वरूप का श्रद्धान करने से विषयों से विरक्ति होती है तथा अात्मिक उत्थान की ओर प्राणी अग्रसर होता है।
कल्लोळतोर्प पोगसुवर्ण द गुणं काष्टांगळोळतोप केच्चेल्ला किच्चिन चिन्हवा केनेयिरल्पालोलघृतच्छायेयें॥ देल्लर वरिणपरंतुटी तनुविनोळ चैतन्यमुं वोधमुं।
सोल्लु जीवगुणंगळेंदरूपिदै ! रत्नाकराधीश्वरा ॥५॥ है रत्नाकराधीश्वर !
पत्थर में जो कौति दिखलाई पड़ती है वह सोने का गुण है। वृक्षों में अग्नि का अस्तित्व है। खौलते हुए दृध में जो मलाई का अंश दिखाई पड़ता है वह घी का चिन्ह है। सब लोग ऐसा जानते हैं। ठीक इसी प्रकार इस शरीर में चेतन स्वभाव, ज्ञान और दर्शन जीव के गुण हैं। आपने ऐसा समझाया ॥५॥
विवेचन--इस शरीर में ज्ञान, दर्शन, सुख, वार्यरूप शक्ति आत्मा की है। अत: आत्मिक शक्ति का यथार्थ परिज्ञान कर बाह्य पदार्थों से ममत्व बुद्धि का त्याग करना चाहिये। एक कवि ने कहा है----
आतम हित जो करत हैं, सो तमको अपकार । जो तनका हित करत है, सो जिय का अपकार ॥
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