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विस्तृत विवेचन सहित
अर्थात् जो तप, ध्यान, त्याग, पूजन आदि के द्वारा श्रात्मा का कल्याण किया जाता है, वह शरीर का अपकार है । क्योंकि विषय निवृत्ति से शरीर को कष्ट होता है; धनादि की वांछा का परित्याग करने से मोही प्राणी कष्ट का अनुभव करता है। तात्पर्य यह हैं कि तप, ध्यान, वैराग्य से आत्म-कल्याण किया जाता है, इनसे शरीर का हित नहीं होता, अतः शरीर को पर वस्तु समझ कर उसके पोषण करनेवालों को धन, धान्य की वांछा नहीं करनी चाहिये । धन, धान्य आदि परिग्रह तथा विषय-वासनाओ द्वारा शरीर का हित होता है, पर ये सब आत्मा के लिये अपकारक हैं, अतः आत्मा के लिये हितकारक कार्यों को ही करना चाहिये ।
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इस प्राणी का आत्मा के अतिरिक्त कोई नहीं है, यह अशुद्ध अवस्था में शरीर में उस प्रकार निवास करता है, जिस प्रकार लकड़ी में अग्नि, दही में घी, तिलों में तैल, पुष्पों में सुगन्ध, पृथ्वी में जल का अस्तित्व रहता है । इतने पर भी यह शरीर से बिल्कुल भिन्न है । जिस प्रकार वृक्ष पर बैठनेवाला पक्षी वृक्ष से भिन्न है, शरीर पर धारण किया गया वस्त्र जैसे शरीर से भिन्न हैं, उसी प्रकार शरीर में रहने पर भी आत्मा शरीर से भिन्न है । दूध और पानी मिल जाने पर जैसे एक द्रव्य प्रतीत होते हैं, इसी प्रकार कर्मों के संयोग से बद्ध आत्मा भी शरीररूप मालूम पड़ता