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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित आकार है उस चैतन्य गुण विशिष्ट द्रव्य को जीव कहते हैं । व्यवहार नय से इन्द्रिय, वल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणों द्वारा जो जीता है, पहले जिया था और आगे जीवेगा उसे जीव द्रव्य कहते हैं। निश्चय नय से जिसमें चेतना पायी जाय वह जीव है। जीव द्रव्य के शुद्ध और अशुद्ध या भव्य और अभव्य ये दो भेद हैं! जीव द्रव्य के साथ जब तक कर्मरूपी बीज का सम्बन्ध है तब तक भवाङ्कर उत्पन्न होता रहता है और जन्म-मरण आदि नाना रूप से विभाव परिणमन होता रहता है। यही जीव की अशुद्ध अवस्था है। इस अवस्था को दूर करने के लिये जीव संयम, गुप्ति, समिति चरित्र श्रादि का पालन करता है तथा संवर और निर्जरा द्वारा घातिया कर्मों का क्षीण करके शुद्धावस्था प्राप्त करता है। यह अवस्था भी जीव को बिल्कुल शुद्ध नहीं है, क्योंकि अघालिया कम अभी शेष हैं। अतः पूर्ण शुद्ध अवस्था मोक्ष होने पर होती है। अशुद्ध जीव संसारी और शुद्ध जीव मुक्त कहलाता है। जैन-दर्शन में प्रत्येक जीव की सत्ता स्वतंत्ररूप से मानी गयी है, अतः यहाँ जीवों की अनेकता है। पुद्गलद्रव्य-- ''स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः' अर्थात् जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पशे ये चार गुण पाये जायें उसे For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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