________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रत्नाकर शतक
उप्पत्तीवविणासो दव्यस्स य णस्थि अस्थि समावो । विगमुष्पादधुवत्तं करोति तस्सेव पज्जाया ॥
प्रा० सा० गा० १०-११ अर्थ-द्रव्य का लक्षण सत् या उत्पाद, व्यय ध्रौव्यात्मक अथवा गुण और पर्यायों का आश्रयात्मक बताया गया है । द्रव्य की न उत्पत्ति होती है और न विनाश, वह तो सत्स्वरूप है; पर उसकी पर्याय सदा उत्पत्ति, विनाश ध्रौव्यात्मक हैं। अर्थात् द्रव्य न उत्पन्न होता है और न नष्ट, किन्तु उसकी पर्यायें उत्पन्न
और विनाश होती रहती हैं। इसीलिये द्रव्य को नित्यानित्यात्मक माना गया है।
जीव -आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है, अनन्त है, अमूर्त है, ज्ञानदर्शनवाला है, चैतन्य है, ज्ञानादि पर्यायों का कर्ता है, कर्मफल भोक्ता है, स्वयं प्रभु है। यह जाव अपने शरीर के प्रमाण है। कुन्दकुन्दाचार्य ने जीव द्रव्य का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है ---
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसई । जाव अलिंगग्गहणं जीवमणिदिवसठाणे ।। -प्रा० सा० २,८०
अर्थ-जिसमें रूप, रस, गन्ध न हों, तथा इन गुणों के न रहने से जो अब्यक्त है, शब्दरूप भी नहीं है, किसी भौतिक चिन्ह से भी जिसे कोई नहीं जान सकता है, जिसका न कोई निर्दिष्ट
For Private And Personal Use Only