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विस्तृत विवेचन सहित
- ----- इस रूप में बतायी गयी है। प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव परिणमनशील है तथा द्रव्य में परिणाम-पर्याय उत्पन्न करने की जो शक्ति है वही गुण और गुण से उत्पन्न अवस्था पर्याय कहलाती है। गुण कारण है और पर्याय कार्य है । प्रत्येक द्रव्य में शक्तिरूप अनन्तगुण हैं तथा प्रत्येक गुण के भिन्न भिन्न समयों में होनेवाले त्रैकालिक पर्याय अनन्त हैं। द्रव्य स्वभाव का परित्याग न करता हुआ उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य से युक्त है। जैन-दर्शन में द्रव्य को कूटस्थ नित्य या निरन्वय विनाशी नहीं माना गया है, बल्कि परिणमनशील उत्पत्ति, बिनाश और ध्रौव्यात्मक माना गया है। जीव, पुद्गल आदि छः द्रव्यों से पृथक् संसार में कोई वस्तु नहीं है, जितने भी जड़, चेतनात्मक पदार्थ दिखलायी पड़ते हैं, वे सब इन्हीं द्रव्यों के अन्तर्गत हैं।
जिस प्रकार अन्य दर्शनों में द्रव्य और गुण दो स्वतंत्र पदार्थ माने गये हैं, उस प्रकार जैन दर्शन में नहीं। जैन दर्शन में गुण
और गुणविकार--पर्याय इन दोनों के समुदाय का नाम द्रव्य बताया है। कुन्दकुन्दाचाय ने गण और पर्यायों के आश्रय का नाम ही द्रव्य बतलाया है -
दव्वं सल्लक्खाणियं उप्पादव्वधुवत्तसंजुत्तं । गणपज्जयासयं वा जं तं भष्णंति सव्वण्हं ।।
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