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रत्नाकर शतक
मिगे षड्द्रव्यमनस्तिकाय मेनिपैदं तत्ववेळ मनं । वुगलोंवत्तु पदार्थमं तिलिदोडं तन्नात्मनी मेय्य दं ।। दुगदि वेरोडलेन चेतनमे जीवं चेतनं ज्ञानरू ।
पिडिगायेंदरिदिर्दने सुखियला ! रत्नाकराधीश्वरा ॥३॥ हे रत्नाकराधीश्वर !
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, श्राकाश, और काल ये छः द्रव्य हैं। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, और
आकाशास्तिकाय, ये पाँच अस्तिकाय हैं । जीवतत्व, अजीवतत्त्व, पाश्रवतत्त्व, बंधतत्त्व, संवरतत्त्व, निर्जरातत्त्व, और मोक्षतत्त्व, ये सात तत्त्व हैं। इनमें पुण्य और पाप के मिलने से नौ पदार्थ बन जाते हैं। इन सभी बातों को भलीभाँति जानकर जो श्रद्धा करता है तथा अपनी आत्मा को शरीर से पृथक् समझता है वही अपना कल्याण करता है। शरीर अचेतन है, जीव चैतन्य और ज्ञान स्वरूप। जो मनुष्य ऐसा जानता है वही सुखी रह सकता है। अर्थात् इस भेद का ज्ञाता ही सुखी होता है ।।३।।
_ विवेचन ----पाँच अस्तिमाय, छःद्रव्य, सात तत्त्व और नौ पदार्थों का जो श्रद्धान करता है, वही सम्यग्दृष्टि श्रावक होता है । जैनागम में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन द्रव्यों के समूह का नाम लोक बतलाया है। ये द्रव्य स्वभाव सिद्ध, अनादिनिधन, त्रिलोक के कारण हैं। द्रव्य की परिभाषा “गुणपर्ययक्त् द्रव्यम्' अर्थात् जिसमें गुण और पर्याय हों वह द्रव्य है,
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