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विस्तृत विवेचन सहित
है। प्रत्येक व्यक्ति अपने चारित्र के बल से ही अपना सुधार या बिगाड़ करता है, अतः मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को सदा अच्छे रूप में रखना आवश्यक है। मन से किसी का बुरा नहीं सोचना, वचन से किसी को बुरा नहीं कहना तथा शरीर से कोई बुरा कार्य नहीं करना सदाचार है ।
विषय-तृष्णा और अहंकार की भावना मनुष्य को सम्यक आचरण करने से रोकती है। विषय-तृष्णा की पूर्ति के लिये ही व्यक्ति प्रतिदिन अन्याय, अत्याचार, बलात्कार, चोरी, बेईमानी, हिंसा आदि पारों को करता है। तृष्णा को शान्त करने के लिये वह स्वयं अशान्त हो जाता है तथा भयंकर से भयंकर पार कर डालता है। अतः विषय निवृत्तिरूप चारित्र को धारण करना परम आवश्यक है। गुणभद्राचार्य ने तृष्णा का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है
आशागतः प्रतिप्राणि यस्मन् विश्वमणूपमम् । तत्कियद् कियदायाति वृथा वै विषयषिता ।।
अर्थ-प्रत्येक प्राणी का आशारूपी गड्ढा इतना विशाल है कि उसके सामने समस्त विश्व का वैभव भी अणु के तुल्य है। इस स्थिति में यदि संसार की सम्पत्ति का बटवारा किया जाय तो प्रत्येक पाणी के हिस्से में कितनो आयगी ? अतः विषय-तृष्णा व्यर्थ है । रत्नत्रय ही सच्ची शान्ति देनेवाला है, यही सच्चा सुखदायक है।
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