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रत्नाकर शतक
विषय-कषायों की निस्सारता प्रत्यक्ष हो जाती है, उनका खोखलापन सामने आ जाता है और जीव के परिणामों में विरक्ति आ जाती है । जब तक संसार के पदार्थों से विरक्ति नहीं होती, तब तक उनका त्याग संभव नहीं। भावावेश में आकर कोई व्यक्ति क्षणिक त्याग भले ही कर दे पर स्थायी त्याग नहीं हो सकता है।
अज्ञानी प्राणी संसार के मनमोहक रूप को देखकर मुग्ध हो जाता है, उसके यथार्थ रूप को नहीं समझता है, इससे अपने इस मानव जीवन को व्यर्थ खो देता है। यह मनुष्य पर्याय बड़ी कठिनता से प्राप्त हुई है, इसका उपयोग आत्म कल्याण के लिये अवश्य करना चाहिये। कविवर बनारसीदास ने अपने नाटक समय सार के निम्नपद्य में विषय-भोगों में अपने जीवन को लगानेवाले व्यक्तियों की अज्ञता का बड़ा सुन्दर चित्रण किया हैज्यों मतिहीन विवेक बिना नर, साजि मतङ्ग जो ईधन ढोवै । कंचन-भाजन धूरि भरै शठ, मूढ सुधारस सों पग धोवै ॥ वे-हित काग उड़ावन कारन, डारि उदधि मनि मरख रोवै । त्यों नर-देह दुर्लभ्य बनारसि, पाय अजान अकारथ खोवै ।
जो व्यक्ति प्रात्मकल्याण के लिये समय की प्रतीक्षा करता रहता है, उसे कभी भी अवसर नहीं मिलता। उसके सारे मनसूबों को मृत्यु समाप्त कर देती है, और वह कल्पता हुआ संसार से चल
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