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१८
रत्नाकर शतक
में शामिल होने लगे ।
रत्नाकर प्रतिदिन प्रातः काल अपने शिष्यों को उपदेश देते थे । शिष्य दो घड़ी रात शेष रहते ही इनके पास एकत्रित होने लगते थे । कवि-प्रतिभा इन्हें जन्म जात थी, जिससे राजा-महाराजाओं तक इनकी कीर्त्ति कौमुदी पहुँच गयी थी।
इनकी दिगदिगन्त व्यापिनी कीर्त्ति को देखकर एक कुकवि के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई और उसने इनकी प्रसिद्धि में कलंक लगाने का उपाय सोचा । एक दिन उसने दो घड़ी रात शेष रहने पर चौकी के नीचे वेश्या को गुप्तरीति से लाकर छिपा दिया । और स्वयं छद्मवेष में अन्य शिष्यों के साथ उपदेश सुनने के लिये आया । उपदेश में उसी धूर्त ने 'यह क्या है' ? । कहकर चौकी के नीचे से वेश्या को निकालकर रत्नाकर कवि का अपमान किया । फलतः कविको अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ा। यद्यपि अनेक लोगों ने उनसे वहीं रहने की प्रार्थना की, पर उसने किसीकी बात नहीं सुनी।
कुछ दूर चलने पर कवि को एक नदी मिली। इसने इस नदी में यह कहते हुए डुबकी लगायी कि मुझे जैन धर्म की आवश्यकता नहीं है, मैं आज इसे जलाञ्जलि देता हूँ । कवि स्नान आदि से निवृत्त होकर आगे चला। उसे रास्ते में हाथी पर एक शैवग्रन्थ का जुलूस गाजे-बाजे के साथ आता हुआ
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