________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 235 कुरुरायं बहुवित्तमं कुडुवना कर्णंगे मत्ता सहोदरर्गा पांडवगैनुमं कुडनदें पिंवोळतिनोळकर्णनु-। वरे दारिननेनल्के संदनररे धर्मधराधीशरा / दरिदें पापशुभोदयक्रियेयला रत्नाकराधीश्वरा !||46 // हे रत्नाकराधीश्वर ! दुर्योधन कर्ण को बहुत द्रव्य देता था पर पाण्डवों को तो कुछ नहीं देता था। फिरभी अंतमें कर्ण दरिद्र बन गया और वे धर्मराज, पृथ्वीपति आदि बन गये। क्या यह पाप-पुण्य का फल नहीं है ? ||19|| विवेचन-- सांसारिक ऐश्वर्य, धन, सम्पत्ति आदि अपने अपने भाग्योदय से प्राप्त होते हैं। किसीके देने-लेने से सम्पत्ति प्राप्त नहीं हो सकती है। कोई कितना ही धन क्यों न दे, पुण्योदय के अभाव में वह स्थिर नहीं रह सकता है। जब मनुष्य के पाप का उदय आता है, तो उसकी चिर अर्जित सम्पत्ति देखते देखते विलीन हो जाती है। पुण्योदय होने पर एक दरिद्री भी तत्काल थोड़े ही श्रम से धनी बन जाता है / जीवन भर परिश्रम करने पर भी पुण्योदय के अभाव में धन की प्राप्ति नहीं हो सकती है। प्रायः अनेक बार देखा गया है कि एक मामूली व्यक्ति भी भाग्योदय होने पर पर्याप्त धन प्राप्त कर लेता है / भाग्य की गति विचित्र है, जब अच्छा समय आता है तो शत्रु भी मित्र बन जाते हैं, जंगल में मंगल होने लगते हैं, कुटुम्बी, रिश्तेदार स्नेह करने For Private And Personal Use Only