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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 234 रत्नाकर शतक उसके लिये कर्मों का सृजन नहीं करता है तथा इस जीव को भी किसीने नहीं बनाया है, यह अनादिकाल से ऐसा ही है। कर्मफल का भोगनेवाला भी यही है। इसे कर्मों का फल कोई ईश्वर या अन्य नहीं देता है / उपचरित असद्भत व्यवहार नय की अपेक्षा से यह जीव इष्ट तथा अनिष्ट पञ्चेन्द्रियों के विषयों का भोगनेवाला है। यह स्वयं अपने किये हुए कर्मों के कारण ही धनी और दरिद्र होता है, इसको धनी या दरिद्र बनानेवाला अन्य कोई नहीं है / अतः धन के नष्ट होने पर या प्राप्त होने पर हर्ष-विषाद करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि यह तो कर्मों का ही फल है। जो व्यक्ति दरिद्र होने पर हाय हाय करते हैं, वेदना से अभिभूत होते हैं, उन्हें अधिक कर्म का बन्ध होता है। हाय हाय करने से दरिद्रता दूर नहीं हो सकती है, बल्कि और अशान्ति का अनुभव करना पड़ेगा। धैर्य और सहनशीलता से बढ़कर सुख और शान्ति देनेवाला कोई उपाय नहीं। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को स्वावलम्बी बनकर अपना स्वयं विकास करना होगा। जबतक व्यक्ति निराशा में पड़कर स्वावलम्बन को छोड़े रहता है, उन्नति रुकी रहती है / स्वावलम्बन ही आत्मिक विकास के लिये उपादेय है, अतः अपने आचरण को निरन्तर शुद्ध बनाने का यल करना चाहिये / For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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