________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 233 अर्थ -- व्यवहारनय को अपेक्षा जीव पुद्गल-कर्मों का कर्ता है। यह मन, वचन और शरीर के व्यापार रूप क्रिया से रहित जो निज शुद्धात्म तत्व की भावना है उस भावना से शून्य होकर अनुपचरित असद्भन व्यवहार नय से ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों का एवं औदारिक, वैक्रियक और आहारक इन तीन शरीरों और आहार आदि छः पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल पिण्ड रूप नो कर्मों का कर्ता है / उपचरित असद्भत व्यवहार नय की अपेक्षा से यह घट, पट, महल, रोटी, पुस्तक आदि बाह्य पदार्थों का कर्ता है ___ अशुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा यह जीव राग, द्वेष आदि भावकर्मों का कर्ता है। ये भाव ही जीव के कर्म बन्ध में कारण होते हैं, इन्हीं के कारण यह जीव इस प्रकार कर्मों को ग्रहण करता है जैसे लोहे के गोले को आग में गर्म करने पर वह चारोंओर से पानी को ग्रहण करता है, इसी प्रकार यह जीव भी अशुद्ध भावों से विकृत होकर कर्मों को ग्रहण करता है। शुद्ध निश्चय नय से यह जीव मन, वचन और काय की क्रिया से रहित हो कर शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव रूप में परिणमन करता है / इस नय की अपेक्षा यह जीव विकार रहित परम आनन्द स्वरूप है, यह अपने स्वरूप में स्थित सुखामृत का भोक्ता है / अतः जीव अपने कर्मों और स्वभावों का कर्ता स्वयं ही है, अन्य कोई For Private And Personal Use Only