________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 232 रत्नाकर शतक आरित्तार्कळेदर्दरिद्र मनदा बंगावनेनोंदु सकारं गेय्यदे भाग्यमं किडिसिदं पूर्वार्जितप्रात्पियिं / / दारिघ्रं धनमेंवेरळसमनिकुं मत्तेके धीरत्वमं / दूरं माडिमनंसदा कुदिवदो रत्नाकराधीश्वरा ! // 48 // हे रत्नाकराधीश्वर! किसने मनुष्य को दरिद्रता दी तथा उसे श्रादरहीन बनाते हुए किसने उसके ऐश्वर्य का नाश किया ! तात्पर्य यह है कि पूर्व जन्म में किये हुए पाप-पुण्य से ही दरिद्रता तथा सम्पत्ति मिलती है इसका भाग्यविधाता अन्य कोई नहीं है। तब फिर, मनुष्य धैर्य का परित्याग कर मन में शोक क्यों करता है ? // 4 // विवेचन- जैनागम में कर्मों का कर्ता और भोक्ता जीव स्वयं ही माना गया है / प्रत्येक जीव स्वतः अपने भाग्य का विधायक है, कोई परोक्ष सत्ता ईश्वरादि उसके भाग्य का निर्माण नहीं करती है। अपने शुभाशुभ के कारगा स्वयं जीव को सुखी और दुःखी होना पड़ता है। श्री नेमिचन्द्राचार्य ने जीव के कर्ता और भोक्तापने का वर्णन करते हुए बताया है-- पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो / चेदनकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं // ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मफलं प जेदि / आदा णिच्छयणयदो चेदणभाव खु आदस्स / / For Private And Personal Use Only