SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 230 रत्नाकर शतक रचै सुहाग देय शोभा जग; परभव पहुँचावत सुरगेह / कुगतिबंध दहमलहि बनारसि, वीतराग पूजा फल येह // देवलोक ताको घर आंगन; राजरिद्ध सेवै तसु पाय / ताको तन सौभाग्य आदिगुन, केलि विलास करै नित आय // सो नर त्वरित तरै भवसागर; निर्मलहोय मोक्ष पदपाय / द्रव्य भाव विधि सहित बनारसि; जा जिनवर पूजै मनलाय // अर्थ-- जिनेन्द्र भगवान की पूजा, पाप, दुःख, संकट, रोग आदिको दूर कर देती है। प्रभुभक्ति से मन की विशुद्धि होती है. जिससे पुण्य का बन्ध होता है। पूजा से संसार में यश, धन, वैभव आदि की प्राप्ति होती है / जीव निर्वाण मार्ग से स्नेह करने लगता है। यह सौभाग्य, सौन्दर्य, स्वास्थ्य आदि को प्रदान करती है। देव गति का बन्ध पूजा करने से होता है। नरक, तिर्यञ्च गति भगवान के पूजक को कभी नहीं मिल सकती हैं। भक्ति सहित पूजा करनेवाले को राज्य, ऋद्धि, स्वर्गलोक आदि सुखों की प्राप्ति होती है / पूजक शीघ्र ही संसार समुद्र से पार हो जाता है, कर्ममल के दूर हो जाने से स्वच्छ हो जाता है / पूजा सर्वदा भाव सहित करनी चाहिये। मन के चंचल होने पर पूजा का फल यथार्थ नहीं मिलता है। अतः देवपूजा, गुरु-भक्ति, संयम, For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy