________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 228 रत्नाकर शतक यदायमात्मा दुःखस्य साधनीभूतां द्वेषरूपामिन्द्रियार्थनुरूपां चाशुभोपयोगभूमिको अतिक्रम्य देवगुरुयतिपूजादान शीलोपवासप्रीतिलक्षणं धर्मानुरागमङ्गीकरोति तदेन्द्रियसुखस्य साधनीभूतां शुभोपयोगभूमिकामधिरूढोऽभिलप्येत / / अर्थ-- - यह आत्मा जब दुःखरूर अशुभोपयोग–हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, सप्तव्यसन, परिग्रह, आदि का त्याग कर शुभोपयोग की ओर प्रवृत होता है-भगवत् पूजन, गुरु सेवा, दान, व्रत, उपवास, सप्तशील आदि को धारण करता है तो इन्द्रिय सुखों की प्राप्ति इसे होती है / वस्तुतः प्रात्मा के लिये शुद्धोपयोग ही उपयोगी है, पर जिनकी साधना प्रारम्भिक है, उनके लिये शुभोपयोग भी ग्राह्य है। अतः प्रत्येक गृहस्थ को देवपूजा, गुरुभक्ति, संयम, व्रत, उपवास आदि कार्य अवश्य करने चाहिये। इन कार्यों के करने से देव, अमिन्द्र, इन्द्र आदि पदों की प्राप्ति होती है, पश्चात् परम्परा से परमपद भी मिलता है। पुण्यंगेय्यदे पूर्वदोळ्वरिदे तानीगळमनं नोडेला-। वण्यक्कोभरणक्के भोगकेनसुरागक्के चागक्के ता- / / रुण्यक्कग्गद लदिमगं वयसि वायं विटु कांक्षामहारण्यं वोक्ककटके चिंतिसुक्दो रत्नाकराधीश्वरा!॥४७॥ For Private And Personal Use Only