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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 224 रत्नाकर शतक में सदुपयोग करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। प्रतिदिन जितनी आमदनी मनुष्य की हो उसका कम से कम दशांश अवश्य दान में खर्च करना चाहिये। दान करने से धन से मोह बुद्धि दूर होती है, आत्म-बुद्धि जाग्रत हो जाती है। अतः परोपकार. सेवा और धर्मप्रभावना के कार्यों में धन खर्च करना परम आवश्यक है। इस जीवन की सार्थकता अन्य लोगों के उपकार या भलाई में लगाने से ही हो सकती है। दान कभी भी कीर्ति-लिप्सा या मान कषाय को पुष्ट करने के लिये नहीं देना चाहिये। जो व्यक्ति मान कषाय के कारण रत्नत्रयात्मक धर्म, निर्दोष देव, गुरु, स्वजन, परिजन आदि का अपमान करता है, तथा सम्मान प्राप्ति की लालसा से दात देता है वह व्यक्ति स्वयं अपना पुण्य खो देता है। तीव्र कर्मों का बन्धक होकर संसार की वृद्धि करता है / जैसे घी का विधिपूर्वक उपयोग करने से स्वास्थ्य लाभ होता है, समस्त रोग दूर हो जाते हैं और दूषित विधि से सेवन करने पर रोग उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार धन का भाव-शुद्धि पूर्वक मन्दकषाय होकर उपयोग करने से पुण्य लाभ होता है, ममत्व दूर होता है और परिणामों में शुद्धि आती है; जिससे कर्म परम्परा हल्की हो जाती है; तथा कषाय पुष्ट करने के लिये कुत्सित भावनाओं के कारण धन का उपयोग करने से For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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