________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 220 रत्नाकर शतक मान्स और मल-मूत्र से भरे अपावन घृणित स्त्री आदि के शरीर से अनुगग करता है। पञ्चेन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहता है। परिग्रह इसे सभी प्रकार का सुखकारक प्रतीत होता है; किन्तु दर्शन मोहनोय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से इसके चित्त में विवेक जाग्रत हो जाता है और यह ज्ञायक म्वरूप होकर अपने निजान्दमय सुधा रस का पान करने लगता है। ___पुत्र, स्त्री,कुटुम्ब, धन आदि से ममत्व इस जीव का तभी तक रहता है, जबतक विरक्ति नहीं होती। यह जीव इन नश्वर पदार्थों को अपना समझकर इनसे राग-विराग करता है तथा इनके अभाव और सद्भाव में शोक और हर्ष ग्रहण करता है। गृहस्थ यदि अपने कर्तव्य का यथोचित पालन करता रहे तो उसे पर पदार्थों से विरक्ति कुछ समय में हो जाती है। यद्यपि गृहस्थ धर्म निश्चय धर्म से पृथक् है, फिर भी उसके पाचरण ने निश्चय धर्म को प्राप्त किया जा सकता है। भगवत् पूजा, भगवान के गुणों का कीर्तन और उनके नाम का स्मरण ऐसी बातें हैं, जिनसे यह जीव अपना उद्धार कर सकता है। प्रभु-भक्ति सगग होते हुए भी कर्मबन्धन तोड़ने में सहायक है, परम्परा से जीव में इस प्रकार की योग्यता उत्पन्न हो जाती है जिससे वह कर्म कालिमा को सहज में ही दूर कर सकता है। For Private And Personal Use Only