SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित मन्दिर बनाने में मूर्तियों के निर्माण तथा प्रतिष्ठा में, जीर्णोद्धार में, गरीब एवं अनाथों के दुःख को दूर करने में, शास्त्र छपवाने में, धर्म के प्रचार के अन्य कार्यों में खर्च करना चाहिये। यह धन किसी के साथ नहीं जायगा, यहीं रहनेवाला है अतः इसका सदुपयोग करना परम आवश्यक है। जो गृहस्थ अपने समय को धर्म सेवन, आत्मचिन्तन, परोपकार, शास्त्राभ्यास में व्यतीत करता है, वह धन्य है। पुत्रोत्साह दोळक्षरादि सकल प्रारंभदोळ व्याधियोळ। यात्रासंभ्रम दोळप्रवेशदेडेयोळवैवाहदोनोविनोळ // छत्रांदोळ गृहादिसिद्धिगळो-हत्पूजेयुं संघ सत्पात्राराधनेयुत्त-मोत्तमवला रत्नाकराधीश्वरा ! // 44 // हे रत्नाकराधीश्वर ! पुत्र के जन्मोत्सव में, विद्या अभ्यास के समय में, रोग में, यात्रा के समय में, गृह प्रवेश के समय में, विवाह के समय में, बाधा उत्पन्न होने के समय में, छत्र झलना, एवं अन्य उत्सव के समय में चतुर्विध संघ की सेवा, अरहंत भगवान की पूजा, सत्पात्र की सेवा क्या व्यवहार धर्मों में श्रेष्ठ नहीं है ? // 44 विवेचन-- जबतक यह जीव अपने निजानन्द, निराकुल और शान्त स्वरूप को नहीं पहचानता है, तब तक यह अस्थि, For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy