________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 218 रत्नाकर शतक इसका अवलम्बन कर अपने साध्य को प्राप्त कर सकता है। इस मार्ग का अन्य नाम गृहस्थ धर्म है। गृहस्थ अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ कुछ समय में परमपद का अधिकारी बन जा सकता है / आसक्तिभाव से रहित होकर कर्म करता हुआ गृहस्थ भरत महाराज के समान घर छोड़ने के एक क्षण के उपरान्त ही केवल ज्ञान प्राप्त करलेता है। गृहस्थ धर्म का विशेष स्वरूप तो प्रसंगवश आगे लिखा जायगा; पर सामान्यतः देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन षट् कर्मों को गृहस्थ को अवश्य करना चाहिये। जो गृहस्थ अपने शरीर को सदा मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इस चतुर्विध संग की सेवा में लगाता है अर्थात् जो सतत अपने शरीर द्वारा गुरुसेवा करता रहता है, साधर्मी भाइयों की सहायता करता है, विपत्ति के समय उनकी संकट से रक्षा करता है, वह अपने शरीर को सार्थक करता है। गृहस्थ का परोपकार करना, दूसरों को दुःख में सहायता देना प्रमुख व्यवहार धर्म है। इस शरीर द्वारा भगवान की पूजन करना, वचन द्वारा भगवान के गुणों का वर्णन करना, उनके स्वरूप का कीर्तन करना तथा मन को कुछ क्षणों के लिये संसार के विषयों से हटाकर आत्म-ध्यान में लगाना, स्व स्वरूप का चिन्तन करना गृहस्थ के लिये आवश्यक है। उसे अपने धन को For Private And Personal Use Only