________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 216 रत्नाकर शतक दया के धारण करने से जीव संसार समुद्र से पार हो जाता है, निर्वाण लाभ करने में उसे बिलम्ब नहीं होता / तनुवं संघद सेवेयोळमनमनात्म ध्यानद-भ्यासदोळ / धनमं दानसुपूजे योळदि नमनहद्धर्म कार्य प्रव-॥ तनेयोळपर्ववनोल्दु नोंपिगडोळियुष्यमं मोक्षचिं तनेयोळ्ती,व सद्गृहस्थननघं रत्नाकराधीश्वरा! // 43 // हे रत्नाकराधीश्वर! शरीर को मुनी, पार्यिका, श्रावक और श्राविका इस चतुर्विध संघ की सेवा में लगानेवाला; मन को ध्यान के अभ्यास में, भगवान की स्तुति में, उनके गुणानुवाद में लगाने वाला; द्रव्य को जिन बिम्ब की प्रतिष्ठा में, जिनालय बनाने में, जीर्णोद्धार करने में, शास्त्र लेखन में, तीर्थ क्षेत्र पूजा अादि में खर्च करने वाला; दिन को जैन धर्म के प्रचार कार्य में प्रवर्तन, मध्यान्ह में प्रेम पूर्वक पर्व तिथि अष्टमी, चतुर्दशी व्रत नियम इत्यादि में बिताने वाला; बची हुई श्रायु में मोक्ष की चिन्ता में समय व्यतीत करने वाला सद् गृहस्थ पाप से रहित होता है // 43 // विवेचन- -- जिस प्रकार दिनकर के बिना दिन, शशि बिना शर्वरी, रस बिना कविता, जल बिना नदी, पति बिना स्त्री, अजीविका बिना जीवन, और लवण बिना भोजन एवं गन्ध बिना पुष्प सारहीन प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार बिना धर्म धारण किये यह For Private And Personal Use Only