________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 215 धारण करने से अन्य जीवों के ऊपर तो स्वतः दयामय परिणाम उत्पन्न हो जाते हैं। वर्तमान में हम अपने ऊपर बड़े निर्दय हो रहे हैं, अपने उद्धार या वास्तविक कल्याण की ओर हमारा बिल्कुल ध्यान नहीं। विषय-कषाय, जोकि आत्मा के विकृत रूप हैं, हम इन्हें अपना मानने लगे हैं। छकाय के जीवों की रक्षा करना पर-दया है / सूक्ष्म विवेक द्वारा अपने स्वरूप का विचार करना, आत्मा के ऊपर कर्मों का जो आवरण आगया है उसके दूर करने का उपाय विचारना स्वरूप दया है। अपने मित्रों, शिष्यों या अन्य इसी प्रकार के अशिक्षितों को उनके हित की प्रेरणा से उदेश देना तथा कुमार्ग से उन्हें सुमार्ग में लाना अनुबन्ध दया है / उपयोग पूर्वक और विधि पूर्वक दया पालना व्यवहार दया है / इस दया का पालन तभी संभव है जब व्यक्ति प्रत्येक कार्य में सावधानी रखे और अन्य जीवों की सुख-सुविधाओं का पूरा पूरा ध्यान रखे / शुद्ध उपयोग में एकता भाव और अभेद उपयोग का होना निश्चय दया है। यह दया ही धर्म का अन्तिम रूप है अर्थात् संसार के समस्त पदार्थो से उपयोग हटाकर एकाग्र और अभेद रूप से आत्मा में लीन होना, निर्विकल्पक समाधि में स्थिर होजाना, पर पदार्थों से बिल्कुल पृथक् हो जाना निश्चय दया है। इस निश्चय For Private And Personal Use Only