________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 214 रत्नाकर शतक आत्मा में इतनी शुद्धि आजाती है जिससे किसी भी प्रकार का पाप मनुष्य नहीं करता है। दया और श्रद्धा से बुद्धि की जाग्रति हो जाती है। दया के आठ भेद हैं--द्रव्य-दया, भाव-दया, स्वदया, पर-दया, स्वरूप-दया, अनुबन्ध-दया, व्यवहार-दया और निश्चयदया / समस्त प्राणियों को अपने समान समझना, उनके साथ सर्वदा अहिंसक व्यवहार करना, प्रत्येक कार्य को यत्नपूर्वक करना जीवों की रक्षा करना तथा अन्य के सुख-स्वार्थों का पूरा ध्यान रखना द्रव्य-दया है। अन्य जीवों को बुरे कार्य करते हुए देखकर अनुकम्पा बुद्धि से उपदेश देना भावदया है / अपने आप की आलोचना करना कि यह आत्मा अनादिकाल से मिथ्यात्व से ग्रस्त है,सम्यग्दर्शन इसे प्राप्त नहीं हुआ है। जिनाज्ञा का यह पालन नहीं कर रहा है यह निरन्तर अपने कर्म बन्धन को दृढ़ कर रहा है अतएव धर्म धारण करना आवश्यक है। सम्यग्दर्शन धारण किये बिना इसका उद्धार नहीं हो सकता है, यही इसे संसार सागर से पार उतारनेवाला है, इस प्रकार चिन्तन कर धर्म में दृढ़ आस्था उत्पन्न करना स्वदया है। जीव इस प्रकार के विचारों द्वारा अपने ऊपर स्वयं दया करता है तथा अपने कल्याण को प्राप्त करता है। यह दया स्वोत्थान के लिये आवश्यक है, इसके For Private And Personal Use Only