________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 213 3 हे रत्नाकराधीश्वर ! जीवदया मत के सदृश दूसरा कोई धर्म नहीं है। यह सभी धर्मों में श्रेष्ठ है। इस धर्म के अनुसार चलकर कालान्तर में निम्रन्थ रथ का अवलम्बन करने वाला यति, सूय्य के समान, संसाररुपी समुद्र को अति शीघ्रता से पार कर जाता है। पुण्य करने वाला तथा गृहस्थ धर्म का आचरण करने वाला गृहस्थ क्या उस धर्मरूपी जहाज से धीरे धीरे पार नहीं होगा ? अभिप्राय यह है कि मुनि धर्म और गृहस्थ धर्म दोनो जीव का कल्याण करनेवाले हैं। // 42 // . विवेचन--- व्यवहार में धर्म का लक्षण जीव रक्षा बताया है, इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है। जीवों की रक्षा करने से सभी प्रकार के पाप रुक जाते हैं। दया के समान काई भी धर्म नहीं है, दया ही धर्म का स्वरूप है। जहाँ दया नहीं वहाँ धर्म नहीं। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय पर हाथ रखकर विचारे तो उसे जीव हिंसा में बड़े से बड़ा पाप मालूम होगा / जिस प्रकार हमें अपना आत्मा चिय है, उसी प्रकार अन्य लोगों या जीवों को भी; अतः जो प्राचार हमें अघिय हैं; अन्य के साथ भी उनका प्रयोग हमें कभी नहीं करना चाहिये : समस्त परिस्थितियां में अपने को देखने से कभी पाप नहीं होता है / जहाँ तक हम में अहंकार और ममकार लगे रहते हैं, वहीं तक हमें विषमता दिखलाई पड़ती है। इन दोनों विकारों के दूर हो जाने पर For Private And Personal Use Only