________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 212 रत्नाकर शतक स्वाभाविक रुचि होती है। शुभ कार्यों को श्रोर बल पूर्वक प्रेरणा देने पर भी मन की प्रवृत्ति नहीं होती है / मानव मन की कुछ ऐसी कमजोरी है कि वह स्वतः ही पापों की ओर जाता है। पुण्य कार्यों में लगाने पर भी नहीं लगता है / फिर भी इतना सुनिश्चित है कि पाप करना मनुष्य का स्वभाव नहीं है / मनुष्य झूठ बोलने से हिचकिचाता है, प्रारम्भ में प्रथम बार झूठ बोलने पर उसका आत्मा विद्रोह करता है तथा उसे धिक्कारता है। इसी प्रकार कोई भी अनैतिक कार्य करने पर आत्मा विद्रोह करता है और अनैतिक कार्य से विरत रखने को प्रेरणा देता है। परन्तु जब मनुष्य की आदतें पक जाती हैं, बार-बार वह निन्द्य कृत्य करने लगता है, तो उसका अन्तरात्मा भी उससे सहमत हो जाता है। अतएव यह सुनिश्चित है कि प्रारम्भ में मनुष्य पाप करने से डरता है, पुण्य कार्यों की ओर ही उसको प्रवृत्ति होता है। यदि जीवरनाम्भ के प्रथम क्षण से ही मनुष्य अपने को सम्हाल कर रखे तो उसकी प्रवृत्ति पाप में कभी नहीं हो सकती है। पडिये जीवदयामतं परमधर्म तन्मतंबोदि मुंगडे निग्रंथक्केसंदं यति सूर्यवोल्प वांभोधियं / / कडुवेगं परिलंधिपं सुकृत कृद्गार्हस्थ्य- धर्मदा-। पडगि मेल्लेने दाटदे इरनला रत्नाकराधीश्वरा ! // 42 // For Private And Personal Use Only