________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 211 विवेक उत्पन्न कर लेते हैं, जिनमें भेदविज्ञान की दृष्टि उत्पन्न हो जाती है, वे संसार के पदार्थों को क्षणविध्वंसी देखते हैं। उन्हें आत्मा, शरीर तथा इस भव के कुटुम्बियों का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है, संसार के भौतिक पदार्थों का प्रलोभन उन्हें अपनी ओर नहीं खींचने पाता है। वे समझते हैं--- अर्थाः पादरजःसमा गिरिनदी वेगोपमं यौवनं / मानुष्यं जलबिन्दुलोलचपलं फेनोपम जीवितम् // भोगाःस्वप्नसमास्तृणाग्नि सदृशं पुढेष्टभार्यादिकं / सर्वञ्च क्षणिकं न शाश्वतमहो त्यक्तञ्च तस्मान्मया // अर्थ- धन पैर की धूलि के समान, यौवन पर्वत से गिरने वाली नदी के वेग के समान, मानुष्य जल की बून्द के समान चंचल और जीवन फेन के समान अस्थिर हैं। भोग स्वप्न के समान निस्सार और पुत्र एवं प्रिय स्त्री आदि तृणाग्नि के समान क्षण नश्वर हैं। शरीर रोग से आक्रान्त है और यौवन जरा से। ऐश्वर्य के साथ विनाश और जीवन के साथ मरण लगा है अतः हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील सेवन, परिग्रह धारण महान् पाप हैं। इनका यथाशक्ति त्याग कर आत्मकल्याण करने की ओर प्रवृत्त होना चाहिये। विषय सेवन और पापों को करने की ओर मनुष्य की For Private And Personal Use Only