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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 210 रत्नाकर शतक की प्राप्ति होती है। पाप क्रम से कम होता जाता है, पुण्य भी क्रम से, भोग की समाप्ति के पश्चात् क्षीण हो जाता है। शरीर भी जब बादल की तरह नष्ट हो जाता है तब जीव मोक्ष को प्राप्त होता है // 41 // विवेचन--- पुण्य और पाप दोनों ही वन्ध के कारण होने से अशुभ कहे गये हैं। सांसारिक पर्याय की दृष्टि से पुण्य बन्ध जीवों के लिये सुखकारक है और पाप बन्ध दुःखकारक / शुद्ध निश्चयनय के समान व्यवहारनय की दृष्टि से भी आत्मा को शुभाशुभ अपरिणमन रूप माना जाय तो संसार पर्याय का अभाव हो जायगा, अतः पुण्य-पाप भी दृष्टि कोण के भेद से इष्टा-निष्ट रूप हैं। इन्हें सर्वथा त्याज्य नहीं मान सकते हैं। परिगामन शील आत्मा में इनका होना संसारावस्था में अनिवार्य सा है। जब आत्मा में तीव्र राग उत्पन्न होता है, कषायों की वृद्धि होती जाती है तो अशुभ परिणमन और मन्द कषाय या मन्दराग के कारण परिणमन होने से शुभ--पुण्य प्रवृत्ति रूप परिणमन होता है और यह आत्मा अपने कल्याण की ओर अग्रसर होने लगता है। प्रत्येक द्रव्य का यह स्वभाव है कि एक समय में एक ही पर्याय होती है, अतःशुभ और अशुभ ये दो पर्यायें एक साथ नहीं हो सकती हैं। संसारावस्था में अशुद्ध परिणमन होने के कारण प्रायः अशुभ रूप ही प्रवृत्ति होती है। जो जीव अपने भीतर For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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