________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 206 जीव धर्म भावना के कारण पानी परिणति को सुधारता है। शास्त्राभ्यास द्वारा सच्चे विवेक और कर्तव्य कार्य की प्रेरणा प्राम कर यह जीव अपना कल्याण कर सकता है / पाप के फल को प्राप्त कर जो व्यक्ति पुनः पाप पंक में फंपना चाहना है, उसका वह अास्रव पापानुबन्धी पाप कहलाता है। यह श्रास्रव जीव के लिये नितान्त अहितकर होता है / इसपे सर्वदा कर्म कलंक बढ़ता जाता है, और बन्धन इतने कठोर तथा दृढ़ होते जाते हैं जिससे यह जीव अपने स्वरूप से सदा विमुख रहता है। पापानुबन्धी पाप जीव को नरक ले जानेवाला है / तीव्र कषाय, विषयानुरक्ति, पर पदार्थों में आसक्ति पानुबन्ध के कारण हैं / अतः ज्ञानी जीव को सदा पुण्यानुबन्धी पाप और पापानुबन्धी पाप ये दोनों अशुभास्रव त्याज्य हैं। कल्याणेच्छुक को इन दोनों प्रास्रवों का त्याग करना आवश्यक है। अघ पुण्यंगळ निष्टमेदं बळिकं लेसेंदेनेकेंदोडंगघटंबोक्के मनं सुधर्म के पुगल्कमुन्नाद पापं क्रमं // लवुवक्कु सुकृतं क्रमविडिदु भोगप्रात्पियिं तिर्दुमू र्ति घनंवोल्बयलागि मुक्तिवडेगुं रत्नाकराधीश्वरा ! // 41 / / हे रत्नाकराधीश्वर ! पहले पाप और पुण्य को अनिष्ट कहा गया है, फिर उन्हें इष्ट भी कहा गया है; क्योंकि शरीर में प्रवेश करने से मन को एक श्रेष्ठ धर्म For Private And Personal Use Only