________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 208 रत्नाकर शतक होता हुआ भी पापबन्ध की ओर प्रवृत्ति करता है, वह जो धर्त और मूर्ख माना जाता है। सुख-साधनों से फूल कर कषाय और भावनाओं के आवेश में आकर वह निन्द्य मार्ग की ओर जाता है। जीव की इस प्रकार की कुप्रवृत्ति पापानुबन्धी पुण्य कहलाती है अर्थात् ऐसा जीव पुण्य के उदय से प्राप्त सुखों को भोगते हुए पाप का बन्ध करता है। पापास्रव जीव के लिये बन्धनों को दृढ़ करने वाला है, जीव इस श्रास्रव से जल्द छूट नहीं पाता है / वह कुप्रवृत्तियों में सदा अनुरक्त रहता है। वर्तमान में पाप के फल को भोगते हुए जो जीव सत्कार्यों को करता है। सदाचार में सदा प्रवृत्ति करता है। जो भौतिक संसार को विपत्तियों की खान, मुसीबतों और कठिनाइयों का आगार मानता है, वह व्यक्ति संसार से भयभीत होकर पुण्य कार्य करने की ओर अग्रसर होता है। ऐसा व्यक्ति संसार में रुलाने वाले विषय-कषायों से हट जाता है, उसमें आध्यात्मिक ज्ञान ज्योति आजाती है। जिससे वह पुण्य कार्य करने की ओर प्रवृत्त होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषायें एवं मिथ्यात्व प्रकृति का उपशम, क्षमोयशम, या क्षय ऐसे जीव के हो जाता है, जिससे उसके हृदय में करुणा, दया का आविर्भावि हो जाता है। यह For Private And Personal Use Only