________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचन सहित 207 हे रत्नाकराधीश्वर! - पूर्व पुण्य से प्राप्त की हुई सम्पत्ति दयामूलक उत्तम धर्म में परिवर्तित हो जाती है। इस सम्पत्ति वाला व्यक्ति पुनः गुणहीन होकर मिथ्यात्व में परिवर्तित हो जाता है। आगे चलकर वह दुःख को प्राप्त होता है। यह दुरितानुबंधी सुकृत है // 30 // ... विवेचन-- पुण्य और पाप दो पदार्थ हैं। इनके संयोगी भंग अगामी बन्ध की अपेक्षा से चार बनते हैं- पुण्यानुबन्धी पुण्य, पुण्यानुबन्धो पाप, पापानुबन्धी पुण्य और पापानुबन्धी पाप / किसी जीव ने पहले पुण्य का बन्ध किया हो, उसके उदय आनेपर वह पुण्य-फल को भोगता हुश्रा अपने कृत्यों द्वारा पुण्य का आस्रव करे। वह इस प्रकार के कृत्यों को करे, जिनसे आगे के लिये भी पुण्य का बन्ध हो। मन, वचन और काय कर्म का आस्रव करने में हेतु हैं, इनकी शुभ प्रवृत्ति रहने ने शुभास्त्रव होता है। जिस पुण्य के फल को भोगते हुए भी पुण्यास्रव होता है, वह पुण्यानुवन्धी पुण्य माना जाता है। ऐसा जीव वर्तमान और भविष्य दोनों को ही उज्वल बनाता है। ___वर्तमान में पुण्य के फल का अनुभव करते हुए जो व्यक्ति पाप करने के लिये उतारु हो जाता है। जो सम्पत्तिशाली और अन्य प्रकार के साधनों से सम्पन्न होकर भी अगामी की कुछ भी चिन्ता नहीं करता है, वर्तमान में सब प्रकार के सुखों को प्राप्त For Private And Personal Use Only