________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 206 रत्नाकर शतक व्यक्ति अपने सुधार की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता उसका लक्ष्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ही रहता है। अतः पापोदय के रहने पर भी जीव पाप का ही वन्ध करता रहे और मिथ्यात्व में पड़ा जीवन से बाहर इधर-उधर भटकता रहे तो इस पापानुबन्धी पाप से उसका उद्धार नहीं हो सकता है / "अजागलस्तनस्येव जन्म तस्य निरर्थकम्' अर्थात् बकरी के गले में लगे स्तन के समान ऐसे व्यक्ति का जन्म व्यर्थ ही होता है। अज्ञान तथा तीव्र राग-द्वेष के वशीभूत होकर जो व्यक्ति दयामयी धर्म की विराधना करता है, वह महान् अज्ञानी है। उसका यह कार्य इस प्रकार निन्द्य है जैसे एक व्यक्ति एक बार ही फल प्राप्ति के उदेश्य से फले वृक्ष को जड़ से काट लेता है जिससे सदा मिलनेवाले फलों से वञ्चित हो जाता है। अतः वर्तमान में किसी भी अवस्था में रहते हुए मनुष्य को अपना नैतिक और आध्यात्मिक विकास करने के लिये सर्वदा दृढ़ संकल्पी बनना चाहिये / अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ऐसे नियम हैं जिनके पालने से इस जीव को सब प्रकार सुख ही मिलता है / पडेवं पूर्वद पुण्यदि सिरियनातं श्रीदयामूलदोलनडेवं तां सुकृतानुबंधिसुकृतं मत्ताधनाढयं गुणं- // गिडे मिथ्यामतदल्लि वर्तिपनवं मुंदेख्दुवं दुःख मं / नुडियल्तां दुरितानुवंधिसुकृतं रत्नाकराधीश्वरा // 4 // For Private And Personal Use Only