________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 204 रत्नाकर शतक हे रत्नाकराधीश्वर ! पूर्व जन्म में किए हुए पाप से दरिद्रता में प्रवेश करने पर भी दया में प्रवृत्त होकर आगामी पुण्य सम्पत्ति को प्राप्त होता है; यह सुकृतानुबंधी दुरित है। यदि दरिद्रता को मिथ्यात्व में बिताया जाय तो वह पापानुबंधी पाप है // 39 // विवेचन--प्रत्येक मनुष्य के सामने दो मार्ग खुले रहते हैं-भला और बुरा। जिस मार्ग का वह अनुसरण करता है उसीके अनुसार उसके जीवन का निर्माण होता है। पूर्व जन्म में किये पापों के कारण इस जन्म में यदि दरिद्रता, रोग, शोक आदि के द्वारा कष्ट भी उठाना पड़ें तथा इन कष्टों में वह दयामयी अहिंसा धर्म का पालन करता चला जाय तो उसका आगे उद्धार हो जाता है। इस प्रकार के पाप का नाम सुकृतानुबन्धी पाप होता है; क्योंकि ऐसे पाप के द्वारा आगामी के लिये पुण्य की उपलब्धि होती है। यह भविष्य के लिये अत्यन्त सुखदायक हो जाता है। ___ मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयं है, अपने जीवन का कर्ता-धर्ता खुद है। प्रत्येक व्यक्ति अपने को जैसा चाहे, बना सकता। इसका भाग्य किसी ईश्वर विशेष के आधीन नहीं। जो यह समझता है कि मेरी परिस्थिति सदाचरण पालने की नहीं है, मैं अत्यन्त निधन हूँ, मेरे पास दान-पुण्य करने के लिये For Private And Personal Use Only